अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा

By: Oct 5th, 2019 12:22 am

दशहरा हर्ष और उल्लास से मनाया जाने वाला विजय का पर्व है, जो विश्व को यह शिक्षा देता है कि बुराई चाहे कितनी ही शक्तिशाली क्यों न हो, परंतु सत्य एवं अच्छाई के समक्ष स्थापित नहीं हो सकती, पाप का अंत होना तय होता है। वह अधिक समय तक अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर सकता। अतः दशहरा मनाते हुए हमें इस महत्त्वपूर्ण तथ्य का बोध अवश्य होता है। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिला में मनाया जाने वाला दशहरा उत्सव न सिर्फ  देश में, बल्कि विदेशों में भी ख्याति प्राप्त है। कुल्लू का दशहरा सबसे अलग और अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। यहां इस त्योहार को दशमी कहते हैं। आश्विन महीने की दशवीं तारीख को इसकी शुरुआत होती है। जब पूरे भारत में विजयदशमी की समाप्ति होती है, उस दिन से कुल्लू घाटी में इस उत्सव का रंग और भी अधिक बढ़ने लगता है। यहां दशहरे पर अनेक रस्में निभाई जाती हैं। कुल्लू दशहरा के लिए 369 साल पहले राजा जगत सिंह ने देवताओं को बुलाने के लिए न्योता देने की परंपरा शुरू की थी, जो आज भी चली आ रही है। बिना न्योते के देवता अपने मूल स्थान से कदम नहीं उठाते। न्योते पर करीब 200 किमी. तक पैदल यात्रा कर नदियों, जंगलों, पहाड़ों से होते हुए अठारह करड़ू की सोह ढालपुर पहुंचते हैं। सात दिनों में एक जगह पर 331 देवी-देवताओं के दर्शन के लिए करीब 10 लाख से ज्यादा लोग, देशी-विदेशी पर्यटक, शोधार्थी हाजिरी भरते हैं। दशहरा उत्सव के मुख्यतः तीन भाग ठाकुर निकालना, मोहल्ला तथा लंका दहन हैं। इस उत्सव के आयोजन में देवी हिडिंबा की उपस्थिति अनिवार्य है। देवी हिडिंबा के बिना रघुनाथ जी की रथयात्रा नहीं निकाली जाती है। दशहरे के आरंभ में सर्वप्रथम राजाओं के वंशजों द्वारा देवी हिडिंबा की पूजा-अर्चना की जाती है तथा राजमहल से रघुनाथ जी की सवारी रथ मैदान ढालपुर की ओर निकल पड़ती है। राजमहल से रथ मैदान तक की शोभा यात्रा का दृश्य अनुपम व मनमोहक होता है। इस स्थान पर जिले के विभिन्न भागों से आए देवी-देवता एकत्रित होते हैं। रथयात्रा के साथ देवसंस्कृति, पारंपरिक वेशभूषा, वाद्य यंत्रों की ध्वनि, देवी-देवताओं में आस्था, श्रद्धा व उल्लास का एक अनूठा संगम होता है। मोहल्ला के नाम से प्रख्यात दशहरे के छठे दिन सभी देवी-देवता रघुनाथ जी के शिविर में शीश नवाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। इस दौरान देवी-देवता आपस में इस कद्र मिलते हैं कि मानो मानव को आपसी प्रेम का संदेश दे रहे हों।  दशहरा उत्सव के अंतिम दिन शिविर में से रघुनाथ जी की मूर्ति को निकालकर रथ में रखा जाता है तथा इस रथ को खींचकर मैदान के अंतिम छोर तक लाया जाता है। देवी-देवताओं की पालकियों के साथ ग्रामवासी वाद्य यंत्र बजाते हुए चलते हैं। ब्यास नदी के तट पर एकत्रित घास व लकडि़यों को आग लगाने के पश्चात पांच बलियां दी जाती हैं तथा रथ को पुनः खींचकर रथ मैदान तक लाया जाता है। इसी के साथ लंका दहन की समाप्ति हो जाती है तथा रघुनाथ जी की पालकी को वापस मंदिर लाया जाता है। देवी-देवता भी अपने-अपने गांव के लिए प्रस्थान करते हैं।  पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण रहता है। इस दौरान उन्हें यहां की भाषा, वेशभूषा, देव परंपराओं और सभ्यता से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है। दशहरा उत्सव में गीत-संगीत के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी इस उत्सव में अहम भूमिका निभाते है।


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