आत्म पुराण

By: Oct 12th, 2019 12:05 am

फिर रागादिक संस्कारों के प्रभाव से आत्म अनात्म से रहित भाव को अवस्था को स्तब्धा अथवा कषाय अवस्था कहते हैं। उसके उत्पन्न होने पर वैराग्य भाव द्वारा उसकी निवृत्ति करे। इतना करने पर ही अधिकारी पुरुष का चित्त ब्रह्मकारता को प्राप्त होता है। साधक का कर्त्तव्य है कि मन को ब्रह्मकारता से चलायमान नहीं करे। जब ये चित्त लय, विक्षेप, करषाय इन तीनों दोषों से रहित हो जाता है, तभी यह जानना चाहिए कि यह ब्रह्मकारता को प्राप्त हो गया। हे शिष्य!  वह ब्रह्म कैसा है? वह शुद्ध और सब अनर्थों से रहित है। इस प्रकार का मन का निरोध ही वेदांत वाक्यों के विचार रूप सांख्य का फल है और वही योग का फल है। इस प्रकार के निरोध के अतिरिक्त सांख्य और योग में कोई अन्य फल नहीं हो सकता? जो पुरुष इन शास्त्रों को छोड़कर न्याय, मीमांसा आदि शास्त्रों के अध्ययन में परिश्रम करते हैं उनसे उनको शांति नहीं मिल सकती। उलटा इनसे मनुष्य में अहंकार भाव की वृद्धि होती है। बिना मन का निग्रह किए मनुष्य जो भी कर्म करता है। वह निष्फल हो जाता है। शास्त्र में कहा है।

दान मिज्यात्यः शौचम तीर्थ वेदः श्रुसंतथा।

अशांत मनसः पुंसः सर्वमेतन्निरर्थकम।।

अर्थात जिस पुरुष का मन विषय वासना का परित्याग करके  शांति को प्राप्त नहीं हुआ है, उसका दान, यज्ञ, तप, शौच, तीर्थ, वेद श्रवण आदि सब व्यर्थ ही है। हे शिष्य! इस लोक में प्राप्त होने योग्य जितने शुभ फल हैं और परलोक में प्राप्त हो सकने योग्य जो शुभ फल हैं, वे सब मनुष्य को मन का निरोध करने पर ही मिल सकते हैं। ऐसे ब्रह्म में कोई भेद भाव नहीं हो सकता। वह सदैव अद्वितीय ही रहता है।

शंका- हे भगवन! यह आत्मदेह यदि एक अद्वितीय रूप है, तो इसमें अनेक प्रकार के भेद क्यों प्रतीत होते हैं?

समाधान- हे शिष्य! जैसे आकाश में स्थित चंद्रमा में यद्यपि कोई भेद नहीं है, तो भी वह स्वच्छ आकाश में जैसा दिखाई पड़ता है, किसी जलपात्र या तालाब आदि में वैसा दिखाई नहीं देता। उस जल रूप उपाधि के कारण एक प्रकार का चंद्रमा अनेक प्रकार का दिखाई पड़ता है। इसी प्रकार यह आत्मदेह एकता अनेकता इत्यादि सब बातों से रहित है। जो अधिकारी पुरुष इस तथ्य को समझकर गुरु और शास्त्र के उपदेश के अनुसार सब प्राणियों में एक ही अद्वितीय आत्मा को व्यापक जानता है, वह जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में एक ही आत्मा को एक ही रूप में देखता है और यह आत्मा ही ब्रह्म स्वरूप है जैसा एको देवः सर्व भूतेषु गूढ़। की प्रसिद्ध श्रुति में भी कहा गया है। हे शिष्य! यहां तुमको ब्रह्म बिंदु उपनिषद के आधार पर ब्रह्म का वास्तविक रूप बताया। अब नारायणीय उपनिषद महोपनिषद तथा आत्म प्रबोध उपनिषद के  सारांश रूप परमात्मा के अस्ति भांति रूप द्वारा समस्त जगत में व्याप्त होने का वर्णन करते हैं। इसे सावधान होकर श्रवण करें। यह परमात्मा देव समस्त जगत को पूर्ण करता है अथवा इस शरीर रूपी पुर के भीतर अंतर्यामी रूप से निवास करता है, इससे श्रुति ने इसको पुरुष कहा है। यह परमात्मा देव प्रलय काल में इन संपूर्ण लोगों को अपने उदर में रखकर क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या के ऊपर बालक की तरह सोता है। इस कारण श्रुति ने इसे नारायण नाम से कथन किया है।


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