आरे से मकलोडगंज तक

By: Oct 10th, 2019 12:30 am

उपचुनाव उवाच-19

हिमाचल के कई अन्य शहर मेरी तरह ही विकास की धर्मशाला बन चुके हैं। प्रदेश में पर्यावरण राजनीति का सबसे बड़ा हथियार है, इसलिए इसके अर्थ कभी समर्थक हो सकते हैं या कभी विरोधी भी। भूमि की कमी को देखते हुए हिमाचली विकास का रास्ता जंगल से निकलता है या यह युद्ध की तरह प्रकृति बनाम प्रगति की संधि की तरह है। ऐसी सैकड़ों योजनाएं-परियोजनाएं वर्षों से लंबित हैं और राजनीति इसमें वन संरक्षण के आश्रय में खेलती है। हमीरपुर के प्रस्तावित बस स्टैंड से पेड़ हटाकर भी अगर विकास की ईंटें थक जाएं, तो भविष्य की तरफ देखने की उम्मीद का क्या होगा। मुंबई के आरे तक मैट्रो का बिछना उतना ही जरूरी है, जितना कल के संदर्भ में हिमाचली शहरों से रज्जु मार्गों, स्काई बसों या एलिवेटेड ट्रांसपोर्ट नेटवर्क का होना। मैं पर्यटकोें की आमद से छह महीने भयभीत रहता हूं, तो मेरे आंगन में दैनिक यात्री बढ़ कर मेरी चिंताएं बढ़ा रहे हैं। ऐसे में मेरी सोच का नजरिया सार्वजनिक परिवहन के नए दौर में पहुंचना चाहिए। मकलोडगंज के वर्तमान को बचाने के साथ-साथ, बढ़ते बोझ को बांटने की जरूरत है। मेरे भीतर देशी-विदेशी एनजीओ का जमावड़ा या कमाने की भीड़ ने मेरी रूह का बंटवारा कर दिया। मैं अपनी संभावनाओं के साथ राजनीति से पूछता हूं कि अपने दांव पर क्यों प्रगति को बेहाल करके खुशफहमी में रहना कबूल करती है। क्यों सत्ता बदलते ही विकास के लक्ष्य और समाज की अनुभूति बदल जाती है। पर्यावरण को लेकर दोहरे मानदंड क्यों। कभी स्की विलेज की ओट में जिस सियासत ने निवेश की राहों को पस्त किया, आज वही ऐसे इंतजाम स्वागत को खड़ी है। हिमाचल में वामपंथी आंदोलनों ने पावर प्रोजेक्ट्स की हड्डियां तोड़ डालीं, लेकिन किसी ने कभी सुना कि ऐसे आंदोलन नशे के खिलाफ या अवैध खनन के विरोध में खड़े हो गए हों। मैं धर्मशाला अपने इर्द गिर्द के तमाशों में ऐसे संगठनों की पोल खोल सकता हूं। सामाजिक संगठनों ने केवल महफिल बना कर मेरे मुद्दों का शृंगार किया, वरना कब हिमाचल में पर्यावरण पर चुनाव ने चिंता की। प्रदेश में राजनीति अगर व्यवसाय नहीं, तो मेरी तरह हर विधानसभा क्षेत्र में यह जांच लीजिए कि किन-किन नेताओं के स्टोन क्रशर बढ़ते रहे। ऐसे कितने नेता हैं, जो होटल व्यवसाय में पारंगत हो गए या जिन्होंने नगर नियोजन कानून की बखिया उधेड़ दी। मेरे अपने जिस्म में भी धारा-118 की अनुमतियों के सुराख हैं, तो सामने सोलन की बिगड़ती तस्वीर को प्रगतिशील मानूं या इसी तरह आगे बढ़ने दूं। क्या मैं अपनी संभावना को मकलोडगंज में खो चुका हूं या चुनावी दंगल में कभी कोई ऐसे विषयों पर सोचने वाला मिलेगा। मुझे मालूम है कि कोई नेता चुनाव नहीं जीतता, बल्कि जीत की चादर के नीचे अतिक्रमणकारी, माफिया, जाति और सियासी विध्वंस का मुखौटा छिपा रहता है। मुझे जीत कर कल कोई चुपके से मुझसे आगे निकल जाएगा और मैं विकास को कभी अंधेरे में कटते पेड़ के नीचे ढूंढूंगा, तो कभी किसी खड्ड की छाती से निकलती अवैध रेत-बजरी में मापूंगा। मेरे विकास के पन्ने राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल के पास गिरवी हैं, कोई है उन्हें तलाश कर मुझे बता दे कि जंगल से मेरा अब रिश्ता क्या होगा।

मांझी खड्ड के छोर से

कलम तोड़


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