दशहरा में 21वीं सदी के रंग

देव परंपराएं आज भी कायम, उत्सव समिति ने दुनिया  तक पहुंचाई कुल्लवी संस्कृति

कुल्लू –सदियों से अनूठे देव इतिहास को संजोने वाला अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव का स्वरूप आकर्षक होने लगा है। 20 सदी में देवी-देवताओं व भगवान रघुनाथ के अहम फैसलों के कारण चर्चा में रहने वाला उत्सव 21वीं सदी में इस पर हो रहे नए रंग-रोगन से चर्चा में हंै। 17वीं सदी में आरंभ हुआ दशहरा उत्सव 21वीं सदी में पहुंचते-पहुंचते कई नए रंग रूप में ढल गया है। 21वीं सदी के दो दशकों में अहम बदलाव यह उत्सव देख रहा है। इस बार कुल्लू दशहरा बजंतरियों की सामूहिक देवध्वनि का गवाह बनने का रूप देख रहा है तो पिछले साल महा-आरती की नई शुरुआत उत्सव ने देखी। कुछ साल पहले उत्सव में हुई महानाटी ने विश्व भर में मेले को नया व अलग स्थान दिलाया तो सामूहिक लालड़ी के स्वरूप में भी आंशिक बदलाव देखने को मिला। करीब 368 सालों से दशहरा सैकड़ों देवी-देवताओं के अनूठे देव मिलन की रस्मों को संजोए हुए है। भगवान रघुनाथ जी के कुल्लू आगमन के बाद ढालपुर में देवभूमि के सैकड़ों देवताओं ने जश्न स्वरूप जो देवोत्सव मनाया था, वह आज कुल्लू के अलावा प्रदेश की भी शान बना है। घाटी के 365 देवी-देवताओं की हाजिरी के साथ आरंभ हुआ यह उत्सव 20वीं सदी के मध्य में नई प्रथा आरंभ होने के बाद महज इक्का-दुक्का देवताओं की हाजिरी को भी देख चुका है। हालांकि सदियों की परंपरा को कायम रखने का महत्त्व जब आयोजकों को समझ आया तो देवताओं की संख्या अब 280 तक फिर से पहुंच गई है। सोहलवीं शताब्दी के साल 1660-61 में जब कुल्लू के राजा ने देवताओं को ढालपुर आने का न्योता भेजा था तो कई रस्में उस दौरान आरंभ हुई थीं। इन रस्मों में आजादी से पूर्व तक राजघरानों के मार्गदर्शन में निभाया जाता रहा। दशहरा में राजपरिवार की दादी हिंडिंबा का स्वागत हो या नरसिंह की जलेब की बात हो, आज भी जस की तस है। अयोध्या से कुल्लू में आकर बसे देवभूमि के अधिष्ठाता रघुनाथ जी की पूजा-अर्चना के तौर-तरीके भी 365 सालों से नहीं बदले हैं लेकिन उत्सव को आकर्षक और बेहतर बनाने के लिए जो प्रयास किए गए हैं वे कुल्लू की देव-संस्कृति को बेजोड़ बनाने की दिशा में सराहनीय प्रयास भी हैं।