दुनिया की असली तस्वीरमां-बाप के आंचल में होती है
मेरा भविश्य मेरे साथ-8
कालेज के टशन एवं साजन के संजय दत्त की तरह लंबे बाल, राम लखन के अनिल कपूर की तरह आगे से शर्ट अंदर और पीछे से बाहर किए, स्टाइल के साथ मैंने सिपाही प्रशिक्षण केंद्र में रिपोर्ट किया। नाम दर्ज करवाते ही मुझे एक नंबर दिया गया जो उस समय से मेरी पहचान बन गया, बारबर शौक से बाल कटवा, जूते, कंबल, मच्छरदानी, दरी, एक कप एवं मेस्टिन सिल्वर का डिब्बा जो खाना खाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। लेकर बैरक में पहुंचा। होस्टल की तरह दिखने वाली बैरक, हम उम्र सहपाठी लगा कि मजा आएगा। पर ये तो अलग ही दुनिया थी, अलग-अलग वेश-भूषा, भाषा के लोगों से मिल, हमारे मुल्क की विविधताओं की अनुभूति हुई। यहां पर एहसास हुआ कि बिना भाषा जाने बार्तालाप कितना मुश्किल होता है, एक ही कप एवं मेस्टिन के साथ सुबह से शाम तक खाने, धोने एवं सुखाने जैसे सारे काम करना,क्लास लगती थी पर वहां पर कोई मीठी कर्ण प्रिय बाणी में रोमांटिक पोइटरी नहीं पर कठोर आवाज में गालियां व मारने काटने की बातें होती थीं। कालेज के दिनों में आधी रात तक दोस्तों के साथ मस्ती करना, सुबह नींद न खुलने पर कक्षा बंक करना। यहां पर 9:30 बजे लाइट्स ऑफ की सीटी बजती, मतलब बिजली बंद, सभी जवान मच्छरदानी में सोए हुए अगर कोई भी सोने में देरी कर दे तो 3:00 बजे तक पनिशमेंट, सुबह 4:00 बजे फिर सिटी बजती और सब चेहरे पर उगे इक्के-दुक्के बालों को शेव कर, तैयार हो, पीटी परेड और उसके बाद कठोर शारीरिक अभ्यास, वेपन एवं जंगल ट्रेनिंग पनिशमेंट, गालियों व थप्पड़, डंडों की मार से दिन गुजरता था, हर अंग ऐसे दुखता था कि उसको सहलाना तक मुश्किल लगता था। आलम ये था कि खाना खाते, चाय ब्रेक या दो कक्षाओं के बीच में 5 मिनट के गैप में रिक्रूट को सोया पाना अकसर देखा जा सकता था। एक शाम को हुकुम आया कि सुबह फायरिंग के लिए हथियार, अमुनिशन, टारगेट्स और फायरिंग के सारे सामान सहित सभी जवान 4:00 बजे तैयार रहेंगे। लाइट्स ऑफ पर मच्छरदानी लगा सोने ही वाले थे, कि उस्ताद ने सबको बाहर पक्की सड़क पर इकट्ठा कर सजा देना शुरू कर दिया। कसूर इतना था कि सीटी बजने के 2 मिनट बाद सारे जवान मच्छरदानी के अंदर नहीं थे। सुबह 3:00 बजे तक सजा के बाद 4:00 बजे तक तैयार होने को कहा गया। फायरिंग का सामान कलेक्ट करने में 5:00 बज गए, उस्ताद नाराज हो गया और फायरिंग रेंज जो करीब 12 किलोमीटर दूर थी जंगल के रास्ते, क्रॉस कंट्री से करीब 10 किलो के बैटल लोड़ पिट्ठू और हथियार के साथ रेंज तक दौड़ा के ले गया, जो थककर रुक जाता, उसे डंडा व गाली पड़ती। फायरिंग शुरू हुई, यहां मुस्तैदी से एक्शन करना जरूरी था। सारी रात की पनिशमेंट, सुबह 12 किलोमीटर दौड़ना शरीर जवाब दे चुका था। फायरिंग खत्म होने पर पता चला कि एक खाली खोखा गुम गया है, रात को 9:00 बजे तक खोखा ढूंढा गया। खाने के लिए बीच में छोड़ा गया पर जो खाना खाने लगते उन्हें गंदी गालियां और डंडे पड़ते। रेंज से वापिसी पैदल मार्च से हुई, हथियार जमा करने के बाद हुई गिनती में दो सैनिक कम मिले, खोजने से पता चला कि वे भगौड़े हो गए हैं। फिर क्या था, पनिशमेंट शुरू। थके, हारे, अधमरे हम एक जिंदा लाश की तरह बस चले जा रहे थे। ऐसा लग रहा था हमने सेना ज्वाइन कर कोई गुनाह कर दिया है और हम उस जुर्म की सजा काट रहे हैं। पीछे से उस्ताद कह रहा था यहां आपके मां-बाप नहीं बैठे हैं, जो गल्ती करने पर भी छोड़ देंगे। उसकी बात सुन मुझे मां, पापा का प्यार, पुचकार, गुस्सा, डांट सब याद आ रहा था और एहसास हुआ कि दुनिया की असली तस्वीर, मां-बाप के आंचल से बाहर आकर दिखती है।
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