देवगुरु बृहस्पति

By: Oct 5th, 2019 12:18 am

हमारे ऋषि-मुनि, भागः 8

सप्तर्षियोंं में एक ऋषि अंगिरा भी हैं, जो भगवान ब्रह्माजी के मानसपुत्रों में से एक हैं। इनके तीन पत्र हुए बृहस्पति,उतध्य तथा संवर्त्त। सबसे ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति जी देवताओं के गुरु हैं। देवताओं में धार्मिक प्रवृत्ति होने का श्रेय इन्हें ही जाता है। वैदिक कर्मकांड इन्हीं के द्वारा पूरे किए जाते हैं।  ऐसे मौके भी आए, जब देवता घमंडी हो गए, मनमर्जी करने लगे। अपने गुरु बृहस्पति की सलाह या आज्ञा का भी उल्लंघन कर बैठे। ऐसा करने पर उनके मान-सम्मान तथा श्री में कमी आती रही। जब-जब बात बिगड़ी, बृहस्पति जी ने देवताओं को क्षमा कर उनकी डूबती नाव को किनारे लगाया।

जब बृहस्पति अपमानित हुए

एक बार देवराज इंद्र अपने पराक्रम, बुद्धि तथा नीतियों पर अभिमान कर बैठे। बृहस्पति जी के सचेत करने पर भी उनको अपमानित कर दिया। बृहस्पति ने रुष्ट होकर स्वर्ग छोड़ दिया। अन्यत्र चले गए। बस फिर क्या था। उनके जाने से स्वर्ग की स्मृद्धि भी गायब हो गई। असुरों ने स्वर्ग को घेर लिया। देवराज इंद्र के हाथ-पांव फूलने लगे। वह परेशानी में छटपटाए। ढूंढते- ढंूढते बृहस्पति जी की शरण में जा पहुंचे। इससे पहले उन्होंने विश्वरूप को देवताओं का पुरोहित तो बनाया, मगर वह उस स्थान के अभाव को पूरा करने में असफल रहे। देवराज इंद्र भूल गए थे कि नए पुरोहित विश्वरूप का मातृकुल असुर है। उनका झुकाव असुरों की ओर ही रहा। अतः जब तब मौका पाकर उन्हें यज्ञभाग व आशीर्वाद भी देते। क्रोधित होकर इंद्रदेव ने अपने सिर पर ब्रह्महत्या का नया पाप धारण कर लिया।  दुःखी हो रहे इंद्र ने अंत में शरण ली अपने गुरु बृहस्पति जी की। उन्होंने भी उदारता दिखाते हुए शरण में आए इंद्र को क्षमा किया, सहारा बने, उन्हें सभी पापों से मुक्त किया। एक बार फिर स्वर्ग में श्री बुद्धि लौट आई तथा सब देवता अपने परमगुरु भगवान बृहस्पति के सान्निध्य में रहने लगे।                                        – सुदर्शन भाटिया 

 


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