मूर्ति पूजा में यकीन

By: Oct 5th, 2019 12:20 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

मेरठ  से स्वामी जी दिल्ली आ गए। सरकारी चिकित्सालय के चिकित्सक बाबू गुरुचरण सिंह लश्कर व उनके परम मित्र स्थानीय उच्च विद्यालय के मौलवी साहब ने आनंद के साथ स्वामीजी के रहने आदि की व्यवस्था कर दी। स्वामीजी जिस घर में भी रहते थे, वह ज्यादा लोगों के आने से छोटा पड़ जाता था। यहां भी कुछ  ऐसा ही हुआ। यह देखकर इंजीनियर पंडित शंभुनाथ जी भी बड़े आग्रह के साथ उन्हें अपने घर ले गए। यहां रोजाना 9 बजे सुबह से दोपहर तक हिंदू और मुसलमान दोनों जाति के शिक्षित भद्र युवकगण एकाग्रचित होकर उनके उदार धर्ममत समूह का श्रवण करते थे। एक ऐसे अद्भुत संन्यासी के विषय में सुनकर अलवर राज्य के दीवान बहादुर ने उन्हें अपने घर पर बुलाया और उनके दर्शन करके बहुत ही प्रसन्न हुए। स्वामीजी को अपने घर में ठहराकर , दूसरे दिन दीवान बहादुर ने महाराज को एक पत्र लिखा कि हमारे यहां एक साधु संन्यासी पधारे हैं। अंग्रेजी भाषा भी ऐसी बोलते हैं कि मैं तो हैरान रह गया। अगर आपके पास थोड़ा भी समय हो, तो इनके साथ बातचीत करके देखें। उनसे मिलकर आप बहुत संतुष्ट होंगे। उस समय महाराज मंगल सिंह बहादुर राजधानी से दो मील दूर एक प्रासाद में ठहरे हुए थे। इत्तिफाक से वे दूसरे दिन ही राजधानी लौट आए। उन्होंने दीवान जी का पत्र पढ़ा। फिर आकर वह दीवान जी के घर पर ही स्वामीजी से मिले। महाराज ने स्वामीजी को आदरपूर्वक प्रणाम किया, फिर आसन ग्रहण किया। कुछ देर तक बातचीत के बाद महाराज ने पूछा स्वामीजी, मैंने सुना है कि आप बड़े विद्वान व्यक्ति हैं। अगर आप चाहें तो प्रचुर धन-उपार्जन कर सकते हैं, फिर भी आपने भिक्षावृत्ति का अवलंबन क्यों किया। स्वामीजी ने कहा, महाराज, पहले आप मेरे एक सवाल का जवाब दीजिए। आप राजकार्य की अवहेलना करते हुए क्या साहबों के संग शिकार आदि व्यर्थ के आमोद-प्रमोद में अपना समय बिताते हैं। तब, राजकर्मचारीगण स्पंदित हृदय से इस असीम साहसी साधु के अमंगल की आशंका करने लगे। एक बार तो महाराज भी अचंभित रह गए। थोड़ी देर सोच-विचार कर उन्होंने कहा, हां करता हूं, किंतु क्यों, यह नहीं कर सकता। इतना जरूर कह सकता हूं कि वह सब मुझे अच्छा लगता है। थोड़ी देर की बातचीत के बाद ही महाराज समझ गए कि वह कृतविध संन्यासी केवल सुपंडित ही नहीं, निर्भीक और स्पष्टवादी भी है। महाराज ने अब जो प्रश्न किया,उसके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वो सवाल कौतहूलवश  किया था या सच्चाई को जानने के लिए किया गया था। स्वामीजी देखिए, मूर्ति पूजा में मेरा जरा भी यकीन नहीं है। इसके लिए मेरी क्या दुर्गति होगी।                             


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