मेरी अपनी मिट्टी के माधो

By: Oct 11th, 2019 12:01 am

उपचुनाव उवाच-20

मेरे यहा विश्वभर के लोग खासतौर पर दलाईलामा से भेंट करने वालों का बौद्धिकस्तर, विश्व की चिंता करता है। विश्व के कई मजमून यहां खुलते हैं, लेकिन मेरे अपनों के खुलासे में बौद्धिक शक्ति का पर्यायवाची ढूंढना पड़ता है। यह केवल धर्मशाला की बात नहीं, हिमाचल की बौद्धिक शक्ति को मापने की जरूरत है। क्या मैं एक उप चुनाव में अपना बौद्धिक साम्राज्य देख पाऊंगा और क्या सियासत का ताल्लुक बुद्धिजीवी वर्ग से है। फिलहाल के गणित में मुझे जातियां और वर्ग दिखाई दे रहे हैं। हिमाचल का अति साक्षर होना वैयक्तिक है, लेकिन राज्य की क्षमता में समाज पूरी तरह निरक्षर प्रतीत होता है। देखने में आपको हर हिमाचली पढ़ा-लिखा नजर आएगा, लेकिन वास्तविक बुद्धिमान हैं कितने! जरा कोशिश करें और अपने हर तरह के जनप्रतिनिधियों में बुद्धिमान गिन लें, अगर आश्चर्य नहीं तो इस बार नोटा मत दबाना। धर्मशाला से पच्छाद तक के प्रत्याशियों में आपको पढ़े-लिखे मिल जाएंगे, लेकिन ऐसे कितने हैं जो ज्ञान की विविधता, दूरदृष्टि, आगे देखने वाले तथा समाज को जागृत करने की क्षमता रखते हों। बेशक हर उम्मीदवार के पांव में छाले मैं देख सकता हूं, लेकिन दिमाग से कहीं ज्यादा उनकी भाग्यरेखा लंबी निकलेगी या जातीय समीकरण आशीर्वाद देंगे। खैर उम्मीदवार भी तो मेरे समाज ने ही दिए जो न तो अपने ज्ञान, न क्षमता और न ही स्वीकार्यता से कहीं भी बुद्धिजीवी नजर आते हैं। वैसे हिमाचल का बुद्धिजीवी वर्ग क्या कर रहा और इतना गैरजिम्मेदार क्यों कि उसे न तो व्यवस्था में अपनी भागीदारी नजर आती है और न ही बतौर कर्मचारी-अधिकारी अपनी जिम्मेदारी। वह ट्रांसफर के सांकल में हर सत्ता का बजंतरी है। वह गुमनाम पत्र है, इसलिए पत्रकारों के कंधे पर सवार होना चाहता है। मेरे चुनाव की लक्षमण रेखा, धर्मशाला के तमाम कर्मचारियों के हाथ में सत्ता की पूजा थाली में अर्पित संवेदना है, इसलिए सरकारों के लिए उप चुनाव जीतना एक तरह से बुद्धिजीवियों का भत्ता आबंटन है। मेरे बुद्धिजीवी अपना सुख किसी भी आलोचना के आगे कुर्बान नहीं करते, लिहाजा चर्चाएं केवल शगल हैं। टाइम पास करते इस वर्ग को केवल छुट्टियां चाहिएं और सरकारी खजाने से निकलते वेतन-भत्ते। जरा सोचें कि हिमाचल का जागरूक समाज बौद्धिक क्यों नहीं और बौद्धिक विमर्श केवल अभद्र और असहमति भरा परिदृश्य क्यों खोजता है। सामाजिक रिक्तता में बौद्धिक समुदाय की अभिलाषा को समझना मुश्किल है। कोई एमएलए बुद्धिमान बनकर हिमाचल के बुद्धिजीवियों को न समझ सकता है और न ही इनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर सकता है, इसलिए राजनीति में ज्ञान बांटती पत्रकारिता भी रंग बदलती है। मैं यानी धर्मशाला मीडिया हब बनकर अपनी चर्चाओं का असर देखता हूं, तो पत्रकारिता के अक्स में मुझे बौद्धिक रिसाव दिखाई देता है। आलोचना के अर्थ को मांजने के लिए मेरे पास वह मिट्टी नहीं, लेकिन मिट्टी के माधो अब बुद्धिजीवी बन गए। मेरे सभी नागरिक कमोबेश हर चुनाव में मिट्टी के माधो बनकर वोट डाल आएंगे और फिर अगले चुनाव की प्रतीक्षा में अपने दिमाग को बार-बार उंडेल कर पूछेंगे कि हमने ऐसा जनप्रतिनिधि क्यों चुना। मुझे यकीन है इस बार भी उप चुनाव में जो जीतेगा, उस पर रंज या दुख मनाने वाले अधिक होंगे, क्योंकि बुद्धि का मानदंड अब केवल अफसोस है।

असमर्थ बुद्धिजीवी समाज के साथ

कलम तोड़


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