मेरे करार की जिद है

By: Oct 20th, 2019 12:02 am

उपचुनाव उवाच-29

मेरे उपचुनाव के भ्रम-सियासत के गिरेबां में झांकते रहे हैं, तो नसीहतों के लठ लिए सत्ता के दरबान खड़े रहे हैं। सत्ता के उत्तराधिकारी की खींचतान में मैंने कांग्रेस को क्षीण रणनीति से मजबूर, अगड़ों से दूर और पिछड़ों के जी हुजूर बनते देखा है। मेरे कई प्रश्न उपचुनाव में लटकते रह गए, लेकिन लटकते खंजरों के नीचे राजनीति ने इस बार कुशल अभियान चलाया। दीवारों पर पोस्टर और मंचों पर नेता मुखर थे, लेकिन मेरी खामोशियां यथावत रहीं। मुझसे ज्यादा तो कसौली का लिट फेस्ट चीखता रहा। शुक्र यह कि पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ मेरी तरह जमीनी सच से परहेज करके भी प्रचार करते रहे। बुद्धिजीवियों के सन्नाटे में एक मुश्किल सा उपचुनाव, चुपचाप गुजर गया, तो मैं चीनियों के खिलाफ स्वायत्तता के लिए तिब्बती संघर्ष में अपना मस्तक ऊंचा करता रहा। लोकतंत्र के चरित्र में तिब्बतियों को स्वीकार करूं या किसी अनहोनी के इंतजार में धर्मशाला के बुद्धिजीवियों का गुब्बार देखूं। मैं हर चुनाव के बाद एमएलए की बाट जिस आधार पर जोह रहा हूं, उसे यह उपचुनाव कैसे पूरा करेगा और फिर अगर जीतने के बाद सियासी जादू सिर पर चढ़ गया, तो खुद से अपने विधायक को कैसे जोड़ पाऊंगा। यह पहला एमएलए होगा, जिसे पांच साल की कमाई तीन साल में करनी है, तो मेरे वर्षों से उपेक्षित जख्म भरने हैं। कमोबेश हर उम्मीदवार नौसिखिया है, इसलिए मेरी परिपक्वता किसी नाजुक कलाई के पास होगी। मुझे यह दौर भी कबूल है, क्योंकि सत्ता ही मेरी नुमाइंदगी करती रही है। इसलिए जीत-हार से पहले ही उपचुनाव ने सरकार के कान में बहुत कुछ कह दिया है। गाहे-बगाहे दो पूर्व मुख्यमंत्रियों ने भी बता दिया कि हर मुख्यमंत्री को मेरे बागीचे में कुछ फूल उगाने पड़ते हैं। शांता कुमार ने नगर निगम की खामियों की पूर्ति का आश्वासन दिया है, तो प्रेम कुमार धूमल ने बताया कि किस तरह मिनी सचिवालय में मंत्रियों को बैठाया गया और सर्किट हाउस में उनके ठहरने की व्यवस्था की, ताकि शीतकालीन प्रवास से शीतकालीन सत्र तक के सरकारी सफर की मंजिल तय हो। मैं पुनः शीतकालीन माहौल में उपचुनाव की गरमाहट को कबूल कर रहा हूं, ताकि कल इसका असर मेरे भविष्य को परवान चढ़ाए। उपचुनाव ने खुद से भी फैसला किया होगा कि उसे इस बार किस राह पर चलना है। कुछ लहरें राजनीति से हटकर और तयशुदा प्रक्रिया से भटक कर भी परिणामों को ईजाद करती हैं, इसलिए इस बार मेरे हर कोस में सियासत बदली है। एक छोटे से उपचुनाव ने मेरा यानी धर्मशाला का ही मुआयना नहीं किया, बल्कि कांगड़ा के नए संतुलन तराशे हैं। यहां ‘न जीत-न हार की जिद है, दिल को शायद करार की जिद है’। उपचुनाव नए करार कर रहा है। यह कांगड़ा के मंत्रियों की टोह ले रहा है, तो राजनीति की कंदराओं में घर कर गई विद्रूपता से बाहर निकलने की कोशिश भी हो सकती है। देखें जब नतीजा आए तो जीत में मतदाता कितना जीतता है या बौद्धिक तर्क में मेरा यानी धर्मशाला का कद किस तरह दिखाई देता है। अफसोस हार के बराबर ही जीत में रहेगा, क्योंकि बहस के बीच, कहीं आश्वासन का मंच या विजन का भाषण नहीं था, अपितु मेरे मोहल्लों ने इस बार पंचायत का चुनाव जरूर लड़ा है।

फिर अकेले धर्मशाला के साथ,

कलम तोड़


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