मेलों का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्त्व

By: Oct 17th, 2019 12:06 am

लाभ सिंह 

लेखक, कुल्लू से हैं

 

माना जाता है कि कुल्लू में दशहरे की शुरुआत कुल्लू के शक्तिशाली राजा जगत सिंह द्वारा 17वीं सदी में ब्राह्मण हत्या के पाप से बचने के लिए की गई थी जब कृष्ण दास के शिष्य दामोदर दास द्वारा अयोध्या से रघुनाथ जी की मूर्ति यहां लाई गई थी और आज भी रघुनाथ जी की रथ यात्रा मेले का मुख्य आकर्षण है। मंडी में शिवरात्रि मेले की विधिवत शुरुआत मंडी के राजा सूरज सेन द्वारा 17वीं सदी में की गई थी। माना जाता है कि मेले की शुरुआत राजा ने उचित उत्तराधिकारी के अभाव में राजपाट माधवराव को सौंपकर की थी…

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय दशहरा महोत्सव के दौरान 2200 से ज्यादा बजंतरियों ने एक साथ देव धुनंे बजाकर इंडिया बुक ऑफ  रिकार्ड्स में इसे दर्ज कर एक नया विश्व कीर्तिमान स्थापित किया है। अपनी इसी अनूठी देव संस्कृति के कारण हिमाचल को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर हर वर्ष राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगने वाले मेलों ने यहां की प्राचीन देव धरोहर को सदियों से बनाए रखा है। जिला कुल्लू में मनाया जाने वाला प्रसिद्ध दशहरा उत्सव, मंडी की शिवरात्रि, चंबा का मिंजर मेला और रामपुर का लवी मेला अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कुछ ऐसे नाम है जो सदियों से हमारी पुरातन परंपराओं के हिस्से रहे हैं। जहां ये सभी मेले अपने आप में कुछ ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़े हैं वहीं कई पीढि़यों तक इनका सांस्कृतिक महत्त्व भी कम नहीं हुआ है।

माना जाता है कि कुल्लू में दशहरे की शुरुआत कुल्लू के शक्तिशाली राजा जगत सिंह द्वारा 17वीं सदी में ब्राह्मण हत्या के पाप से बचने के लिए की गई थी जब कृष्ण दास के शिष्य दामोदर दास द्वारा अयोध्या से रघुनाथ जी की मूर्ति यहां लाई गई थी और आज भी रघुनाथ जी की रथ यात्रा मेले का मुख्य आकर्षण है। मंडी में शिवरात्रि मेले की विधिवत शुरुआत मंडी के राजा सूरज सेन द्वारा 17वीं सदी में की गई थी। माना जाता है कि मेले की शुरुआत राजा ने उचित उत्तराधिकारी के अभाव में राजपाट माधवराव को सौंपकर की थी और आज भी मंडी का शिवरात्रि मेला माधोराय की जलेब के साथ अपने ऐतिहासिक महत्त्व को बनाए हुए है। वहीं तिब्बत के साथ व्यापार के रूप में शुरू हुआ लवी मेला आज भी घोड़ों के व्यापार के लिए प्रसिद्ध है और चंबा के मिंजर मेले में मिंजर बहाने की परंपरा 10वीं सदी में साहिल वर्मन के समय से आज तक जारी है।

सात दिन तक चलने वाले इन मेलों का जहां ऐतिहासिक महत्त्व है वहीं इनके सांस्कृतिक महत्त्व को भी नकारा नहीं जा सकता। ये हजारों वर्षों से हमारी प्राचीन परंपराओं को जैसे संगीत, नृत्य व अन्य लोक मनोरंजन कलाओं को संजोए हुए हैं। प्राचीन वाद्य यंत्रों का स्वरूप समाज में बनाए रखा है एवं संगीत व मनोरंजन पद्धति को संजोए हुए हैं। दूसरी तरफ  हिमाचल के लगभग प्रत्येक गांव एवं छोटे कस्बों में कई तरह के धार्मिक व व्यापारिक मेलों एवं उत्सवों का आयोजन किया जाता है। मेले लोगों को उनके व्यस्त क्षणों में से राहत दिलाकर मनोरंजन के साधन उपलब्ध करवाते हैं और आपसी भाईचारे को बढ़ाते हैं। इन मेलों में लोक वाद्य यंत्रों के साथ-साथ लोक-नृत्यों, लोकनाट्यों, प्राचीन एवं आधुनिक खेलों इत्यादि का आयोजन भी किया जाता है। इससे एक तरफ जहां स्थानीय कलाकारों और युवा खिलाडि़यों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन मिलता है वहीं ये लोगों के भरपूर मनोरंजन में भी सहायक होते हैं। वर्ष 2015 में कुल्लू दशहरे के दौरान करीब दस हजार महिलाओं द्वारा एक साथ नाटी में नाच कर कुलवी नाटी के माध्यम से ‘बेटी है अनमोल’ का संदेश देते हुए ‘गिनीज बुक ऑफ  वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में हिमाचल की विरासत माने जाने वाली कुल्लू गौरव नाटी का नाम दर्ज कर इसे अमर कर दिया। वहीं शिक्षा के बढ़ते प्रसार के साथ भी राज्य में महिलाओं की स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हो सका है। एक तरफ  जहां सबसे अधिक साक्षर जिलों हमीरपुर और ऊना में राज्य भर में सबसे कम बाल लिंगानुपात है, वहीं लाहुल एवं स्पीति जैसे दुर्गम जिले में जनजातीय जनसंख्या के बावजूद देशभर में बाल लिंगानुपात में सर्वोच्च स्थान हासिल किया है। इससे एक बात स्पष्ट है कि बढ़ती शिक्षा के बावजूद हम लिंगभेद संबंधी मानवीय सोच में परिवर्तन नहीं ला सके हैं।

एक सर्वे के अनुसार 40 प्रतिशत महिलाओं को केवल बाजार तक जाने के लिए भी अपने पतियों से अनुमति लेनी पड़ती है जिनमें मेलों को भी शामिल किया जा सकता है, हालांकि मेले आपसी मेल-जोल का अवसर उपलब्ध करवाते हैं और समाज में कलह और द्वेष की भावना को कम करते हैं, लेकिन महिलाओं को भी इसमें भाग लेने की पूरी स्वतंत्रता हो, यह आवश्यक है। इसके साथ यह भी आवश्यक है कि अंतरराष्ट्रीय मेलों में सांस्कृतिक संध्या कार्यक्रमों में महिला कलाकारों को ज्यादा से ज्यादा भाग लेने के लिए उचित अवसर उपलब्ध करवाया जाए। वहीं हिमाचल जैसे 90 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या वाले प्रदेश के लिए उसकी स्थानीय संस्कृति को जिंदा रखने के लिए यह आवश्यक है कि हम पार्श्व गायकों के साथ-साथ स्थानीय कलाकारों को भी स्टार नाइट में एक स्टार के तौर पर प्रोत्साहन दे।

इससे एक तरफ  जहां राज्य में गायन और अन्य लोक मनोरंजक विधाओं में एक बड़ा बदलाव आएगा वहीं बची हुई धनराशि को दूसरे विकास कार्यों में लगाया जा सकता है। इसके साथ ही मेलों में मादक द्रव्यों का अधिक सेवन, बलि प्रथा और जातीय भेदभाव जैसी कुछ पुरातन और रूढि़वादी परंपराएं भी विद्यमान हैं। 21वीं सदी विज्ञान और तकनीक की सदी मानी जाती है और इस तकनीकी दौर में इन परंपराओं का पालन अपने आप में एक चिंतनीय विषय है। किसी समय सती प्रथा भी हमारी संस्कृति का भाग था, बाल विवाह, स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखना भी हमारी परंपराओं में शामिल था। हम इन परंपराओं को अंधों की तरह सदियों से ढो रहे थे, जब तक कि अंग्रेजी सत्ता ने हमारी आंखंे नहीं खोल दी थी।

आज भी हमें बहुत कुछ इन विकसित देशों से सीखने की जरूरत है। कुछ आवश्यक बदलावों के साथ हमारी प्राचीन संस्कृति व प्राचीन लोक कलाएं आने वाली पीढि़यों तक पहुंचे, इसके लिए जरूरी है कि मेले समाज में अपना वजूद कायम रखें और रूढि़वादी परंपराओं का हम त्याग करें।


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