विवाद से परे हैईश्वर का अस्तित्व

By: Oct 19th, 2019 12:14 am

सफलताओं के साथ-साथ एक उन्मादी अहंकार आता है, जिसमें स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति पनपती है और मर्यादाओं की नीति-नियमों की चिंता न करते हुए स्वार्थ-साधना एवं अहमन्यता की पूर्ति के लिए कुछ भी कर गुजरने को उच्छृंखलता अपनाता है, तो उसे आस्तिकता की भावना ही डराती है। वह कहती है- यहां स्वेच्छाचार की किसी को भी छूट नहीं है। सबके ऊपर एक नियामक शक्ति मौजूद है और कर्मफल की दंड व्यवस्था भी मौजूद है…

-गतांक से आगे….

सफलताओं के साथ-साथ एक उन्मादी अहंकार आता है, जिसमें स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति पनपती है और मर्यादाओं की नीति-नियमों की चिंता न करते हुए स्वार्थ-साधना एवं अहमन्यता की पूर्ति के लिए कुछ भी कर गुजरने को उच्छृंखलता अपनाता है, तो उसे आस्तिकता की भावना ही डराती है। वह कहती है- यहां स्वेच्छाचार की किसी को भी छूट नहीं है। सबके ऊपर एक नियामक शक्ति मौजूद है और कर्मफल की दंड व्यवस्था भी मौजूद है, जो इतनी कठोर है कि मर्यादा तोड़ने वाले को भली प्रकार सबक सिखा सकती है। भगवान की भयानकता से डरकर उच्छृंखलता पर बहुत कुछ नियंत्रण होता रहता है। आस्तिकता में ईश्वर के गुणानुवादों का कथन, श्रवण, मनन, चिंतन जुड़ा हुआ है। ईश्वर सद्गुणों का पुंज है, पवित्रता, करुणा, ममता, उदारता जैसी सद्भावनाएं ईश्वरीय अनुकंपा के फलस्वरूप उपलब्ध होने वाली विभूतियां हैं। इस मान्यता से ईश्वर सान्निध्य के लिए- उपासना आदि प्रयास करते हुए मनुष्य अधिकाधिक चरित्रनिष्ठ और समाजनिष्ठ बनने का प्रयत्न करता है। समाजनिष्ठ को धार्मिकता और सभ्यता कहते हैं। चरित्रनिष्ठा का दर्शन अध्यात्म कहलाता है, उसी का दूसरा नाम संस्कृति भी है। इन्हीं के आधार पर मनुष्य प्रामाणिक और पराक्रमी बनता है। प्रगति के यही दो चरण हैं, जिनके सहारे लोग भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं। ईश्वर की मान्यता का प्रभाव न्यूनाधिक मात्रा में सदाशयता और शालीनता की अभिवृद्धि में ही दृष्टिगोचर होता है। यों बुराइयां तो आस्तिकों में भी पाई जाती है, पर नास्तिकता अपना लेने पर तो मनुष्य उन मर्यादा का उल्लंघन के संबंध में और भी अधिक निर्भय हो जाता है। संभावनाओं की दृष्टि से देखा जाए तो आस्तिक की तुलना में नास्तिक के अनाचार मार्ग पर चल पड़ने की संभावना है। श्रेष्ठ मार्ग पर कदम बढ़ाने वाले के लिए ईश्वर विश्वास एक सुयोग्य एवं सुसंपन्न साथी की तरह सहायक सिद्ध होता है, वह सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहन ही नहीं, वरन सहायता के आश्वासन भी देता है। इन दोनों आंतरिक उपलब्धियों के सहारे चलने वाले का साहस प्रतिकूलताओं के बीच अविचल बना रहता है। नास्तिक ऐसी किसी सहायता की आशा नहीं करता, साथ ही अपनी दुर्बलताओं एवं कठिनाइयों को देखता रहता है।      क्रमशः

(यह अंश आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा रचित पुस्तक ‘विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व’ से लिए गए हैं।)


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