विषय आसान, पाठ्यक्रम मुश्किल

By: Oct 15th, 2019 12:30 am

उपचुनाव उवाच-24

मेरे साथ पच्छाद के उपचुनाव ने सियासी भाषा के प्रयोग करके कई ऐसे मुहावरे ढूंढ लिए, जो आने वाले समय में भी याद किए जाएंगे। इसी दौरान कसौली लिट फेस्ट ने भाषाई संगम पर मिर्चें उबाल कर हिमाचल के एक पूर्व सांसद को भाजपा का पाठ्यक्रम सौंप दिया। यानी मेरे या पच्छाद के उपचुनाव से भी बड़ा गुनाह कसौली में एकत्रित लेखकों ने कर दिया। लेखक मुद्दा भी हो सकते हैं, इसलिए सोच समझ कर लिखें। खैर हिमाचली लेखक यह तय नहीं कर पाए कि उनको खरा-खरा कितना लिखना है या अपनी बोलियों की ‘भाषा’ में क्या लिखना है। वैसे राजनीति से ऊंचे पहाड़ पर लिखते-लिखते कई हिमाचली खुद को लेखक समझ बैठे, फिर कांगड़ा तो धौलाधार पर लिखे को पढ़कर यह सोचता रहा कि अगर कविता भी ओलावृष्टि की तरह होती, तो क्या हालत होती। हिमाचल के विषय और हिमाचली लेखक के विषय इसलिए अलग रहे ताकि कहीं ‘कसौली लिट फेस्ट’ न हो जाए, बल्कि यहां का लेखक तभी समझ आता है जब भाषा विभाग या अकादमी उसे पाठ्यक्रम देते हैं। पच्छाद की चुनावी सरगर्मियों के बीच पूर्व सांसद वीरेंद्र कश्यप के विवेक पर सारा साहित्य कुर्बान हो सकता है या कसौली का अगला लिट फेस्ट उनसे सलाह ले सकता है, मगर सोलन की राज्य स्तरीय लाइब्रेरी पर ही अगर वह बोल देते तो चारों तरफ सुभान अल्लाह-सुभान अल्लाह सुना जाता। खैर मैं यानी धर्मशाला मुगालते में रहा। कभी कोतवाली बाजार में मेरी लाइब्रेरी इसलिए उजाड़ी कि वहां पार्किंग बनेगी और अध्ययनशील नागरिकों को एक बेहद सुविधाजनक पुस्तकालय बना कर दिया जाएगा। ऐसा आज तक नहीं हुआ, बल्कि लाइब्रेरी के विकल्प में मिले भवन न किताबें रख पा रहा और न ही युवा पाठकों की शुमारी को सुविधाएं दे पा रहा है। आश्चर्य यह कि मेरे आसपास के नेताआें को शायद ही पता होगा कि पुस्तकालय होता क्या है, अब यह मत पूछना कि कभी किसी जनप्रतिनिधि ने पुस्तकों की बात की। यह दीगर है कि पुरानी लाइब्रेरी की जगह व्यापारिक परिसर बस गया, लेकिन किसी को यह शर्म नहीं आई कि जिस लक्ष्य से पुस्तकालय भवन बनना था उसका हाल क्या है। करीब पांच हजार सदस्यों के लिए मेरे पुस्तकालय का महत्त्व, कसौली लिट फेस्ट से भी अधिक है। इन्हीं में से लगभग दो हजार युवा केवल प्रतिस्पर्धी परीक्षाआें की तैयारी के लिए पुस्तकालय को मक्का बनाते हैं, लेकिन मेरे इस पुराने संस्थान को लेकर न शिक्षा विभाग को चिंता और न ही शिक्षा मंत्री यह सोच रहे हैं कि भविष्य की लाइब्रेरी का प्रारूप क्या होगा। हिमाचल के अतीत में लेखकीय या साहित्यिक संवेदना से निकले नेताआें ने राज्य की संस्कृति और भाषा पर काफी काम किया है। प्रो. नारायण चंद्र पराशर तथा लाल चंद प्रार्थी के दौर में लेखक गृह बने, तो शांता कुमार के रूप में पहला लेखक प्रदेश का मुख्यमंत्री बना। कुछ पत्रकार भी नेता बने, लेकिन नेता बनते ही कलम छूट गई। प्रवीण शर्मा तथा मुकेश अग्निहोत्री ने पत्रकारिता को साहित्य से कहीं अधिक राजनीति के विषय से जोड़ा, लेकिन प्रदेश के विषयों को लेखन के पाठ्यक्रम से जोड़ते हुए प्रो. प्रेम कुमार धूमल, डा. राजीव बिंदल तथा स्व. सत महाजन ने हमेशा समाचार पत्रों में अपने चिंतन की छाप छोड़ी। कांगड़ा के नेताआें का लेखकीय कौशल सत महाजन, शांता कुमार के अलावा मेजर विजय सिंह मनकोटिया के व्यक्तित्व को संवेदना के अलग धरातल पर खड़ा करता रहा, लेकिन मेरे उपचुनाव के वर्तमान दौर के किस्से-कहानियों को धर्मशाला का हर नागरिक संवेदनशील पाठक के तौर पर देख रहा है। मेरे आंचल में बसते मीडिया ने अपने कौशल से इस बार उपचुनाव का पाठ्यक्रम बढ़ा दिया है, तो देखें जीत का विषय त्रिकोणीय मुकाबले में किसे कविता सुनाता है।

अभिव्यक्ति की कसम के साथ,

कलम तोड़


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