सानू समझ न आया

By: Oct 19th, 2019 12:30 am

उपचुनाव उवाच-28

मैंनू, सानू या किसी को भी मेरा उपचुनाव समझ न आया। किसी को अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार से गिला, तो किसी को पार्टी से ही गिला रहा। ऊंचे झंडों के नीचे ठिगने नेताओं ने मेरे उपचुनाव का कद कितना गिराया, यह अनुमान मैं नहीं लगा सकता। मेरा गणित समझते नेताओं के लिए भी उपचुनाव की पूंछ पकड़ना आसान नहीं, हालांकि मैंने प्रचार में तरह-तरह की मूंछें देखी हैं। यहां सत्ता और कांग्रेस की मूंछें परवान चढ़ीं, लेकिन निर्दलीय सफर की कहानी का किरदार सभी के उस्तरे लेकर गायब रहा। मेरे हर चुनाव में उस्तरेबाजी होती रही है और हर बार के त्रिकोण में किसी का उस्तरा दूसरे के सिर को मूंड कर चुपचाप बचकर निकलता रहा। इस बार उस्तरे की कहानी बदल गई है और परिणाम भी बदला, तो मानना पड़ेगा कि राजनीति समाज की सोच को किस हद तक बदल सकती है। इस बार जीत-हार में न वादों की किश्ती, न इरादों की बस्ती, लेकिन पगडंडियों पर कोई कांटे जरूर बिछाता रहा। क्या वे जो साथ चले, अपने थे या वे जो वास्तव में अपने थे, वे भी बंट गए। क्या मैं अब इनसानों का परिवार नही रहा, जो तंबुओं में कबीले आबाद होने लगे हैं। यहां जीत के लिए ज्यादा मेहनत हो रही या हराने वालों की टोलियां अपने झंडों को बर्बाद कर रहीं। पच्छाद में तो अकेले भाजपा को दयाल प्यारी से बचना है, लेकिन धर्मशाला में अपनों की निगाहों से बचना है। कुछ लोगों ने मेरे उपचुनाव को ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के हिसाब से समझना शुरू कर दिया है, लिहाजा हर कोई उत्तर पाने के लिए पुरानी लाइफलाइन ‘फोन ए फ्रेंड’ ढूंढ रहा है। मेरा कोई दोस्त नहीं और न ही उपचुनाव के बाद लाइफलाइन मिलेगी। सत्ताधारी जीते, तो मैं किशन कपूर की तरह का विकास चाहूंगा और कांग्रेस जीती, तो गुरु गोविंद सिंह को याद करके कहूंगा, ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिडि़यन मैं बाज तुड़ाऊं, तबे गोविंद सिंह नाम कहाऊं।’ अगर इस बार निर्दलीय को बारी मिल गई, तो मेरी समझ आए न आए, भाजपा-कांग्रेस की समझ एक जैसी हो जाएगी। यकीन मानें मेरे उपचुनाव को समझने की कोशिश होने लगी है और इसीलिए कांग्रेसी खुद भाजपा से पूछ रहे हैं, लेकिन भाजपा खुद को बता नहीं रही। यहां की जातीय व वर्गीय समीकरणों को समझने की कोशिश बिना किसी आधार के हो रही है, जबकि मेरे समझदार लोग समझकर भी खामोश हैं। इसलिए यह उपचुनाव खामोश है, लेकिन मतदान जरूर अपनी चुप्पी तोड़ेगा और चीख-चीख कर जब बोलेगा, तो परिणाम पर बैठी आशंकाएं और मुखर हो सकती हैं। आज के राजनीतिक परिदृश्य में मतदाता की पसंद का तकाजा बदल चुका है। उसके सामने एक साथ कई कुएं और खाइयां अगर पैदा होंगी, तो वह ऐसी जगह छलांग लगाएगा, जो कम से कम खतरनाक होगी। मेरे उपचुनाव का फैसला करते मतदाता एक तरफ अपने लिए जोखिम नहीं चुनना चाहते, तो दूसरी ओर वे खुद की ताकत को साबित करने के लिए ‘कुछ भी करने’ की स्थिति में सारे अभियान को ले जा रहे हैं। समझ यह नहीं आ रहा कि जिसके पास तादाद में झंडे, कार्यकर्ता या नेता अधिक हैं, वह पार्टी आगे चल रही है या जिसके पास जनता का आक्रोश और बदलाव का जोश खड़ा है, वह उलट फेर कर देगा। इस सारे कदमताल के बीच जो बंदा सानू समझ न आया, क्या वह जीत जाएगा या जो हमें समझा नहीं पाएगा, हार जाएगा। सच मानें तो इस बार मेरा उपचुनाव किसी को भी समझ नहीं आ रहा।

समझदार मतदाता के करीब से,

कलम तोड़


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