आध्यात्मिक एकता

By: Nov 30th, 2019 12:25 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

जब वो खेतड़ी पहुंचे, तो शाम हो चुकी थी, स्वामीजी के सम्मान में पूरे महल को दीपावली की तरह सजाकर दीपकों से प्रकाशित किया गया था। चारों ओर नाच-गाने का उत्सव चल रहा था। महाराज अपने मेहमानों और आसपास के राजाओं के साथ दरबार में बैठे थे, जैसे ही पहरेदारों ने स्वामी के आने की खबर दी, सारी सभा उठकर खड़ी हो गई। महाराज ने देखते ही स्वामी जी के चरणों में अपना सिर रख दिया। स्वामी जी ने आशीर्वाद देकर उन्हें उठाया, उसके बाद महाराज ने सभी मेहमानों से स्वामी जी का परिचय करवाया और खुद को पुत्र जन्म का वरदान देने की बात सुनाई और यह भी बताया कि स्वामी जी सनातन धर्म के प्रचार के लिए पश्चिमी देशों में जा रहे हैं। यह सुनकर सभी लोग बड़े खुश हुए। इसके साथ ही महाराज ने बच्चे को लेकर स्वामी जी के चरणों में रख दिया। स्वामी जी ने बच्चे को अनेकों आशीर्वाद दिए। खेतड़ी में कुछ दिन ठहरने के बाद स्वामी जी ने महाराज से जाने की इजाजत मांगी। महाराज खुद उन्हें जयपुर तक छोड़ने आए और जगमोहन लाल को स्वामी जी के पास मुंबई तक जाकर सब प्रबंध ठीक कर देने की आज्ञा दी। इसके बाद उन्होंने सजल नेत्रों से स्वामी जी के चरण वंदना करके विदा ली। स्वामी जी के साथ पंडित जगमोहन लाल मुंबई पहुंचे। मद्रास से उनके परम भक्त अलमसिंह पेरुमल भी आ गए थे। पी.एंड ओ. कंपनी के पैपिनसुलर नाम महाराज के लिए स्वामी विवेकानंद के नाम प्रथम श्रेणी का टिकट खरीदा गया। 31 मई, 1823 को स्वामी जी मुंबई से अमरीका की ओर रवाना हुए। पेरुमल और जगमोहन लाल के नेत्र सजल हो उठे। खुद स्वामी जी की आंखें भी छलक आईं थीं। मातृभूमि को छोड़ने का उन्हें भी बेहद दुःख था। वे दोनों हाथों से अपने हृदय को दबाए हुए थे। जहाज के डेक पर खड़े हुए वो भारत की तट भूमि को निहारते रहे। भारत के प्रति अनेको चिंताएं मस्तिष्क में घुसी हुई थी। हाय भारत वर्ष, हाय पराधीन। रात-दिन बाद उनका जहाज कोलंबो पहुंचा। सीलोन की राजधानी कोलंबो। बौद्धधर्म का देश। जहाज बंदरगाह में रुका। स्वामी उतरे और एक गाड़ी करके उन्होंने सारे शहर को देख लिया। कोलंबो से जहाज फिर चलता मार्ग में मलाया प्रायद्वीप के पेनांग,सिंगापुर पड़े तथा दूरी पर उन्हें ऊंचे पहाड़ वाला सुमात्रा दिखा। सिंगापुर से वह हांगकांग पहुंचे। सिक्यांग नदी के किनारे 80 मील दूरी पर जहाज रुका तो स्वामी जी ने कैंटन शहर देखा। वहां उन्होंने बहुत से बौद्ध मठ देखे और वहां के सबसे बड़े मंदिर के दर्शन किए। इसके बाद नागासाकी,ओसाका, टोकियो और कपाटो देखते हुए वो स्थलमार्ग से याकोहामा आए। सुदूर पूर्व देश पर आर्य सभ्यता का प्रभाव कितना व्यापक था,स्वामी जी यह विशेष रूप से देखते थे। साथ ही एशिया की आध्यात्मिक एकता के बारे में भी उनकी धारणा दृढ़ होता जा रही थी।   

 


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