इन्वेस्टर मीट के बहाने-4

By: Nov 6th, 2019 12:05 am

निवेश महज निवेश नहीं आर्थिकी की दिशा है, लिहाजा इसे आर्थिक सुधारों के परिप्रेक्ष्य में भी देखना होगा। हम इन्वेस्टर मीट की कोरी आलोचना करने से पूर्व सोचें कि इस वर्ष हिमाचल का कुल बजट 44388 करोड़ का है, जो प्रस्तावित निवेश से आधा है यानी चाहकर भी प्रदेश के वित्तीय ढांचे का सामर्थ्य, भविष्य को संवार नहीं सकता। बजट की आमदनी और खर्च में सबसे अधिक तकरीबन पचास फीसदी अगर सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह और वेतन भत्तों पर आबंटित होता रहेगा, तो हिसाब लगाइए कि इसके लिए इस साल 7081 करोड़ का ऋण प्रस्तावित है और अब तक करीब चार हजार करोड़ उठाया जा चुका है। प्रदेश के राजस्व घाटे 2342 करोड़ और वित्तीय घाटे 7352 करोड़ के बीच आर्थिकी की कमजोर स्थिति का खेवनहार बढ़ता ऋण तो कदापि नहीं हो सकता, जबकि यह उत्पादकता बढ़ाकर, कृषि-बागबानी में मूल्य संवर्द्धन, भंडारण, अभिषीतन, प्रोसेसिंग, पर्यटन-ऊर्जा क्षेत्र की क्षमता में विस्तार, अधोसंरचना के निखार, शहरी तथा सेवा क्षेत्र विस्तार से ही संभव होगा। इसी साल के बजट में 3261 करोड़ के ऋण लौटाने तथा 4100 करोड़ के ब्याज भुगतान पर खर्च होगा, तो कर उगाही के लिए निजी निवेश की सार्थकता ही काम आएगी। ऐसे में निजी निवेश प्रदेश के राजस्व बढ़ाने में अहम किरदार तभी बनेगा, अगर माहौल बनाने में सियासी सहमति तथा पारदर्शी नीतियां बुलंद होंगी। बेरोजगारी में हिमाचल पूरे देश में छठा सबसे ऊपर राज्य है। हिमाचल की बेरोजगारी 10.6 प्रतिशत की दर से देश की औसत से भी दोगुना है, तो क्या हम बच्चों को केवल सरकारी नौकरी का ख्वाब दिखाते हुए पैंतालीस साल तक खूंटे से बांधे रखें। हिमाचल की प्रगतिशीलता और नागरिकों का प्रगतिशील अब वक्त की प्रतिस्पर्धा से रू-ब-रू है, तो यथार्थवादी होना पड़ेगा। हिमाचली शिक्षा को अब यह जवाबदेही लेनी पड़ेगी कि इसकी संपूर्णता में छात्र केवल बेरोजगार नहीं, बल्कि कामकाज के लिए तैयार हों। फिलवक्त हिमाचल में कौशल विकास की स्थिति भी निम्न पायदान पर है और इसलिए निजी निवेश को धारण करने के लिए मानव संसाधन को भी इसी रास्ते के योग्य बनाने के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण की धाराएं परिवर्तित करनी होंगी। हिमाचल की डिमांड व सप्लाई पर केंद्रित आर्थिकी का पूरा लाभ इसलिए नहीं उठाया जा रहा, क्योंकि स्वरोजगार की पैरवी में मानसिक धरातल विकसित नहीं हुआ। प्रदेश में हर दिन बाहरी राज्यों से दूध, बेकरी, पाल्टरी तथा सब्जी उत्पादनों की आमद साबित करती है कि कहीं आंतरिक ऊर्जा का बिखराव है। पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वाईएस परमार ने कृषि-बागबानी पर केंद्रित ग्रामीण आर्थिकी की दिशा में जो प्रयास शुरू किए वे धीरे-धीरे रुक गए। एक दौर ऐसा था जब परवाणू में एचपीएमसी का फल विधायन केंद्र अपनी उत्पादन क्षमता का भरपूर इस्तेमाल करते हुए, देश को ‘कोल्ड ड्रिंक्स’ के विकल्प के रूप में फलों का जूस पिलाने की दिशा बताने में सफल था। बेशक हम सेब राज्य से फल राज्य बनने की योजनाएं बनाते रहे, लेकिन सफलता का बाजार पूरी तरह नहीं खुला। इस दौरान कृषि तथा बागबानी विश्वविद्यालयों की डिग्रियां भी सरकारी नौकरी का दस्तावेज बन गईं, जबकि असली मूल्यांकन तो जमीनी उत्पादन और इसके आधार पर आर्थिकी का विकास होना चाहिए। नवाचार के मामले में हिमाचल की प्रयोगधर्मिता का सीमित दायरा और विभागीय जिम्मेदारियों में आर एंड जी की दिशा न के बराबर रही है, लिहाजा निवेश की जरूरत व समझ विकसित ही नहीं हो पाई। सरकारी क्षेत्र को सर्वश्रेष्ठ मानने और इसके माध्यम से सस्ती सुविधाएं हासिल करने की मांग आपूर्ति में प्रदेश ने खुद को सियासी संकीर्णता में फंसाए रखा। अब क्योंकि सरकारी दामन में इतने छेद हो चुके हैं, भविष्य का निर्धारण व्यापक दृष्टिकोण से ही होगा और यही प्रतिस्पर्धा हिमाचल को निजी निवेश से जोड़ रही है। यह दीगर है कि निजी निवेश को मजबूरीवश करने के बजाय इसे आवश्यकता के अनुरूप ही अपनाना होगा। 


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