गरीब हिमाचली जनता को मिले मरहम

By: Nov 9th, 2019 12:05 am

ब्रजेश महंत

अध्यक्ष, फोरलेन संघर्ष समिति

हिमाचल सरकार व हिमाचली व्यवस्था निवेश के लिए दामन फैलाकर ‘जी आइया नूं’ कहे तो न केवल पहाड़ी संस्कृति के दर्शन होते हैं, बल्कि समानांतर पटरियों पर छुक-छुक करती रेल कुलांचे भरती दिखती है। उम्मीद बड़ी चीज है। हिमाचल सरकार को भी भारी निवेश आने की उम्मीदें हैं, जिससे प्रदेश की सुस्त पड़ी आर्थिकी को पटरी पर लाने में सहायता मिलेगी। मधुमक्खियों को पालना है तो, यदा-कदा गुड़ भी खिलाना पड़ेगा…

धर्मशाला में हो रही इन्वेस्टर मीट क्या हिमाचल के बिगड़ते अर्थतंत्र में कोई मील पत्थर साबित होगी या अधोसरंचना की हिलती चूलें इसे टेढ़ी खीर बना मुंह का जायका बिगाड़ेगी। यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है। हिमाचल की आर्थिकी निवेश के पैबंदों से ढक जाए तो हिमाचल सोच सकेगा एक ऊंची उड़ान की। हिमाचल सरकार व हिमाचली व्यवस्था निवेश के लिए दामन फैलाकर ‘जी आइया नूं’ कहे तो न केवल पहाड़ी संस्कृति के दर्शन होते हैं, बल्कि समानांतर पटरियों पर छुक-छुक करती रेल कुलांचे भरती दिखती है। उम्मीद बड़ी चीज है। हिमाचल सरकार को भी भारी निवेश आने की उम्मीदें हैं, जिससे प्रदेश की सुस्त पड़ी आर्थिकी को पटरी पर लाने में सहायता मिलेगी। मधुमक्खियों को पालना है तो, यदा-कदा गुड़ भी खिलाना पड़ेगा। हिमाचल सरकार पलक-पांवड़े बिछाए हाथ में गुड़ लिए तैयार ‘रानी’ मक्खी का इंतजार कर रही है। मक्खियों को अपना छत्ता भी बुनना होगा। निवेशकों को हिमाचल प्रदेश पंचायती राज एक्ट 1994, हिमाचल प्रदेश नगर निगम अधिनियम 1994, हिमाचल प्रदेश म्यूनिसिपल एक्ट 1994, हिमाचल प्रदेश फायर फाइटिंग सर्विसेज एक्ट 1984, हिमाचल प्रदेश रोड साइड लैंड कंट्रोल एक्ट 1968, हिमाचल प्रदेश शॉप्स एंड कामर्शियल एस्टेबलिशमेंट एक्ट 1969, हिमाचल प्रदेश सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 2006, हिमाचल प्रदेश टाउन एडं कंट्री प्लानिंग एक्ट 1977 जैसे अधिनियमों के प्रावधानों से तीन वर्ष के लिए राहत प्रदान करने के संदर्भ में अध्यादेश जारी किया गया है। अर्थात तीन वर्षों तक इन कानूनों के अंतर्गत वांछित अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं लेना होगा। तीन वर्षों के बाद, तब की तब देखेंगे। हिमाचल सरकार के निवेशकों को लुभाने के ये प्रयास काबिले-तारीफ हैं। परंतु इस आपाधापी में सभी भूल रहे हैं, उस अति लघु निवेशक को जो, प्रदेश की जनता है, जो कि विषम हालातों में भी प्रदेश की आर्थिकी को ढोए जा रही है। निवेशकों को दी गई राहतें स्वागत योग्य हैं लेकिन सवाल उठता है कि प्रदेश की गरीब जनता के हिस्से ऐसी राहतें कब आएगी। कब हिमाचल का गरीब युवा इन अधिनियमों के सुरसा मुख से बाहर निकल अपना कामकाज कर पाएगा। भू अधिग्रहण के प्रभावितों के हकों की अलख जगाती फोरलेन संघर्ष समिति लगातार सरकार से इस अव्यावहारिक व अप्रासंगिक कानून को निरस्त करने की मांग कर रही है। मसला हजारों फोरलेन प्रभावितों का नहीं, बल्कि उस चिंगारी का है, जो बारूद के ढेर के नीचे दबी पड़ी है। सरकार इसे शायद देख नहीं रही, अथवा देखकर अनदेखा कर रही है। बाहरी निवेशकों की राहों में बिछाए जा रहे राहतों के पलक-पांवड़े सराहनीय हैं। परंतु प्रदेश वासियों के पांव के छाले का भी तो कोई मरहम होगा? आज लगभग पूरे प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र बिना किसी मास्टर प्लान के हिमाचल प्रदेश टाउन एंड कंट्री प्लानिंग एक्ट 1977 के अंतर्गत टीसीपी के दायरे में हैं। टाउन एंड कंट्री प्लानिंग का जिन्न धीरे-धीरे पूरे हिमाचल की समृद्धि पर पर ग्रहण बन कर छाता जा रहा है। हिमाचल में टाउन एंड कंट्री प्लानिंग विभाग के लक्ष्यों पर गौर किया जाए, तो नियोजित व समृद्ध ग्राम, नियोजित व समृद्ध शहर व नियोजित व समृद्ध हिमाचल की झांकी अनायास ही आंखों के आगे तैर जाती है। इसके लक्ष्यों में व्यापक रूप से योजनाबद्ध एवं व्यवस्थित शहरी और ग्रामीण विकास को प्रोत्साहित करना, अव्यवस्थित निर्माण पर रोक लगाना, बहुमूल्य शहरी भूमि का सर्वोत्तम उपयोग करना, योजनाबद्ध निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए अनुकूल परिस्थितियों का सृजन करना, आवश्यक शहरी आधारिक संरचना के सृजन के लिए ढांचा योजना बनाना, गरीबों और विशेष रूप से शहरों की झुग्गी झोंपड़ी में रहने वालों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करना, अनुकूल आवास के लिए पर्यावरण में सुधार करना, राज्य की समृद्ध विरासत एवं पहाड़ी वास्तुकला का संरक्षण करना शामिल है। केंद्र की ओर से एक योजना चलाई जा रही है, जिसका नाम है राष्ट्रीय रुर्बन मिशन जिसके अनुसार ‘राष्ट्रीय रुर्बन मिशन का उद्देश्य अनिवार्य रूप से शहरी मानी जाने वाली सुविधाओं से समझौता किए बिना समता और समावेशन पर जोर देते हुए ग्रामीण जनजीवन के मूल स्वरूप को बनाए रखते हुए गांवों के क्लस्टर को ‘रुर्बन गांवों’ के रूप में विकसित करना है।’ जिसमें इसके लिए उपयुक्त निर्माण एवं आयोजना विनियमन और प्रवर्तन तंत्र शुरू करने के साथ-साथ आयोजना संबंधी मानकों के अनुसार सुव्यवस्थित लेआउट दिया गया हो।’ यहीं नहीं केंद्र की विभिन्न योजनाओं के दायरे में आने के चक्कर में अपने हाथ-पैर काटे जा रहे हैं, तरह-तरह से टीसीपी नगरों व ग्रामों पर लादी जा रही है, ताकि हम उस ढांचे में फिट हो, भले ही इन कोशिशों में दम घुट जाए। हिमाचल समतल क्षेत्र नहीं है, धरातल का बहुत बड़ा हिस्सा पहाड़, नदी-नाले, खाइयों व जंगल के रूप में प्राकृतिक विस्तार है। सरकार के राजस्व, लोक निर्माण, विद्युत, कृषि, उद्योग, पशु-पालन, बागवानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सहित अनेक विभागों, निगमों व अन्य सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों के पास कृषि व रिहायशी भूमि का एक बड़ा हिस्सा है।  इस सब के बाद प्रदेश में कृषि, बागबानी व गृह निर्माण को बहुत कम भूमि बचती है। परंतु हिमाचल के प्रशासन ने कसम उठा रखी है कि पूरे हिमाचल को जैसे-कैसे नियोजित करके रहेंगे। चाहे इस प्रयास में दीवार से सटे घरों की परंपराएं टूट जाएं, ग्रामीण क्षेत्रों की गरीब जनता के पास भूमि के बहुत ही छोटे-छोटे टुकड़े हैं। जिन पर घर आदि बने हैं, अथवा बनाए जाने हैं। आपसी सौहार्द से आने-जाने के रास्तों व अन्य प्रकार की समस्याएं नहीं हैं। आसमान से चांद तारे तोड़ कर लाने का काम नव प्रेमी-प्रेमिका पर छोड़ देना चाहिए। जिस प्रदेश पर 50 हजार करोड़ का कर्जा हो, ऐसे प्रदेश के तो आसमान की ओर देखने पर भी फतवा जारी हो जाना चाहिए। टाउन एंड कंट्री प्लानिंग के अव्यावहारिक व धरातल की सच्चाइयों को धता बताते नियमों के विरुद्ध उठे स्वर अब हिमाचल भर में बड़ी आवाज बन रहे हैं। वहीं दबा-कुचला आक्रोश कभी नहीं फूटेगा ऐसी सोच आज के दौर में बेमानी है। इससे पहले कि परिस्थितियां, विस्फोटक, अप्रिय व दुखद हो जाएं, इस जिन्न को बोतल में कैद करना होगा व प्रदेश वासियों के जख्मों पर मरहम लगाना होगा। कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना, उचित समय पर मरहम लगाने से ही साकार होती है। और सुबह का भूला अगर शाम को घर लौट आए, उसे भूला नहीं कहते।

हिमाचली लेखकों के लिए

लेखकों से आग्रह है कि इस स्तंभ के लिए सीमित आकार के लेख अपने परिचय तथा चित्र सहित भेजें। हिमाचल से संबंधित उन्हीं विषयों पर गौर होगा, जो तथ्यपुष्ट, अनुसंधान व अनुभव के आधार पर लिखे गए होंगे।   

-संपादक


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