घटाटोप अंधेरे में उजाले की दूध गंगा

By: Nov 13th, 2019 12:05 am

सुरेश सेठ

साहित्यकार

आज जिस तरीके से अयोध्या का मामला सुप्रीम कोर्ट ने वक्त से पहले निपटा दिया है, अपना स्पष्ट निर्णय दे दिया है। उससे देश में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए नई उम्मीदें जागी हैं। चालीस दिन की लगातार सुनवाई के बाद यह फैसला सत्रह तारीख को आने की उम्मीद थी। इस फैसले को जल्दी दे दिया गया और वह भी उस दिन दे दिया गया जिस दिन पाकिस्तान और हिंदुस्तान के कूटनीतिक और छद्म युद्ध के चरमोत्कर्ष में एक सांझीवालता का मार्ग खुल रहा था। यह मार्ग वाघा-अटारी और डेरा बाबा नानक से खुलकर करतारपुर के परमधाम तक एक पुण्य गलियारे के रूप में जा रहा था…

पिछले कुछ वर्षों में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के नाम पर देश के विभिन्न क्षेत्रों में सांस्कृतिक क्षरण देखा जा रहा था। अध्यापक अध्यापन नहीं कर रहे थे, शिक्षा संस्थान व्यावसायिक दुकानों में तबदील हो रहे थी। धर्म स्थानों में राजनीति की घुसपैठ हो गई थी और राजनीति में धर्म का इस्तेमाल एक सुविधाजनक स्तर पर करने की कोशिश की जा रही थी। आज जिस तरीके से अयोध्या का मामला सुप्रीम कोर्ट ने वक्त से पहले निपटा दिया है, अपना स्पष्ट निर्णय दे दिया है। उससे देश में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए नई उम्मीदें जागी हैं। चालीस दिन की लगातार सुनवाई के बाद यह फैसला सत्रह तारीख को आने की उम्मीद थी। इस फैसले को जल्दी दे दिया गया और वह भी उस दिन दे दिया गया जिस दिन पाकिस्तान और हिंदुस्तान के कूटनीतिक और छद्म युद्ध के चरमोत्कर्ष में एक सांझीवालता का मार्ग खुल रहा था।

यह मार्ग वाघा-अटारी और डेरा बाबा नानक से खुलकर करतारपुर के परमधाम तक एक पुण्य गलियारे के रूप में जा रहा थाए जहां से अब से लेकर सदियों तक हजारों श्रद्धालु गुरु साहिब के अंतिम दिनों के पुण्य स्थल का दर्शन दीदार करते हुए अपने जन्म को सफल कर सकेंगे। बहुत बड़ा था अयोध्या में भगवान राम के जन्मस्थान पर रामलला के मंदिर की स्थापना का मसला। पिछले 200 वर्षों से इस पर अदालती लड़ाई चल रही थी। बीच-बीच में विद्वेष के झंझावात भी बहे। यह भी कहा गया कि रामलला को तो राजनीतिक उठा-पटक और सांप्रदायिक ताकतों ने एक टैंट में बंद कर दिया, लेकिन सांस्कृतिक पुनरुत्थान का पहला चिन्ह तब नजर आया जबकि देश के क्षरित होते हुए लोकतंत्र में इसकी न्यायपालिका की अर्थवत्ता पर भी छींटे उड़ाए जाने लगे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के चीफ  जस्टिस गोगोई ने कहा कि सन् 1991-92 से लटकते हुए इस अदालती मामले की रोजाना सुनवाई करके उभय पक्षों को अपना-अपना पूरा मौका देकर सटीक फैसला उनकी सेवानिवृति से पहले दे दिया जाएगा। 

अब जस्टिस गोगोई की पीठ ने अपना फैसला उस दिन सुनाया जिस दिन भारत और पाकिस्तान के बीच पुण्य गलियारा खुल रहा था और श्रद्धालुओं के जत्थे श्रद्धा से अभिभूत होकर बाबा नानक के अंतिम दिनों के साक्षी पुण्य स्थल श्री करतापुर साहिब गुरुद्वारा के खुले दर्शन करने जा रहे थे। जहां तक भौतिकवादी मूल्यों के प्रसार का ताल्लुक है, पिछले दिनों देश में बहुत कुछ ऐसा देखा गया था जिससे लगता रहा कि देश में उदात्त भावनाओं का क्षरण हो रहा है। लोग धर्म के प्रति समर्पण, धीरज, संयम और एक-दूसरे को सहन करने की भावना का त्याग कर रहे हैं। हर धारणा या तत्त्व का बाजार में मोल लग रहा है। कहीं न कहीं हर स्थापना के पीछे चोर गलियां निकल रही हैं, जहां अवसरवादी तत्त्व अपनी राजनीति की रोटियां सेंकते हैं। अपने लिए प्रगति के शार्टकट तलाशते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। शार्टकट संस्कृति के जमाने में रामलला की स्थापना के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह स्पष्ट फैसला देश में ऐसी भावनाओं का संचार कर गया है कि जिन्हें देखकर हम कह सकते हैं कि अभी भारत ने अपनी सांस्कृतिक गहराइयां और मानवीय ऊंचाइयां नहीं छोड़ीं। फैसले के बाद जब भूमि रामलला के मंदिर को दे दी गई और मुस्लिमों के पक्षकार सुन्नी वक्फ  बोर्ड को कहा गया कि उन्हें मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ भूमि अन्यत्र प्रदान कर दी जाएगी तो कुछ भी हो सकता था। प्रशासकों को हिंसा के झंझावात बहने का डर भी हो सकता था। इनसानों के बीच धर्म के बीच धर्म की दीवारें खड़ी हो सकती थीं, लेकिन अयोध्या और फैजाबाद के मिलजुल कर रहते लोगों का सांझा जीवनयापन और एक-दूसरे को सहन करने की भावना कुछ और ही सत्य कहती रही जिसे राजनीतिज्ञों की संकीर्ण स्वार्थपरता ने कभी पहचान नहीं दी, लेकिन जैसे ही फैसला आया और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने यह कहा कि हम इस फैसले को रिविजन के लिए चुनौती नहीं देंगे क्योंकि इससे आगे रिव्यू पटीशन और क्यूरेटिव पेटीशन के रास्ते खुले थे, तो माहौल बदला। 200 साल पुराना झगड़ा तो निपट गया, लेकिन लोगों के मन में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के धनात्मक मूल्यों का संदेश दे गया। हिंदुओं ने तो इसे स्वीकार किया ही लेकिन मुसलमानों ने भी इसके प्रति कोई बेजा प्रश्न नहीं उठाया। उन्होंने न्यायपालिका के सामने सिर झुकाया। इससे यही संदेश मिलता है कि भारतीय संस्कृति का क्षरण तब तक नहीं होगा जब तक लोकतंत्र के चारों स्तंभ जिंदा हैं। अयोध्या और रामलला विवाद के चिरलंबित फैसले से न्यायपालिका ने भारतीय संस्कृति के पुनर्जीवन का एक रास्ता दिखाया है।


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