चिंता से मुक्त

By: Nov 2nd, 2019 12:15 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

रात -दिन यही चिंता हावी होती रहती थी। क्षण भर के लिए भी वह इस चिंता से मुक्त नहीं हो पाते, सोते समय भी ये चिंताएं उनके दिल में जाग्रत रहती थीं। स्वामी जी खंडवा से होते हुए मुबंई से पूणा की ओर गए। पूणा जाते समय उनके साथ एक घटना घटी जिससे स्वामी जी ने विराट व्यक्तित्व का परिचय मिलता है गाड़ी में स्वामी जी को द्वितीय श्रेणी से भ्रमण करते देखकर उसी डिब्बे में बैठे कुछ महाराष्ट्रीय शिक्षित लोग संन्यासियों की बुराई करने लगे। वह समझते थे कि स्वामी जी अंग्रेजी नहीं जानते। वह कह रहे थे भारत के पतन में अधिकतर संन्यासियों का ही हाथ है और इसके अलावा भी न जाने क्या-क्या बाते कर रहे थे। उस डिब्बे में लोकमान्य तिलक भी बैठे थे, लेकिन उन यात्रियों की बातों से सहमत नहीं थे। बातें जब हद से ज्यादा बढ़ गई तो स्वामी जी चुप न रह सके और बोले, युगों से संन्यासियों ने ही संसार की आध्यात्मिक भावध धरा का तेज और अक्षुण्ण बना रखा है। बुद्ध क्या थे? शंकाराचार्य कौन थे? क्या उनकी आध्यात्मिक देन को भारत अस्वीकार कर सकता है? जवाब दो मुझे। स्वामी जी की बातें सुनकर सभी आश्चर्य में पड़ गए और शर्मिंदगी से सिर झुका लिया। तभी लोकमान्य तिलक स्वामी जी से प्रभावित होकर स्नेहपूर्ण स्वर में आग्रह करके उन्हें अपने घर ले गए और एक महीने तक उन्हें अपने पास ही रखा। स्वामी जी की देशभक्ति, दीन-दुखियों के प्रति उनका प्रेमभाव व उनकी सहानुभूति आदि से लोकमान्य तिलक पर गहरा प्रभाव पड़ा, फिर वहां से विदा होकर स्वामी जी बेलगांव पहुंचे। एक महाराष्ट्रीय के घर में ठहरे। वहां पर स्वामी जी ने एक दिन हरिपद बाबू से अमरीका में जाकर शिकागो धर्मसभा में सम्मिलित होने की इच्छा प्रकट की। लेकिन जब हरिपद बाबू ने इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए चंदा इकट्ठा करने का प्रस्ताव किया, तो स्वामी जी ने उन्हें रोक दिया। फिर कुछ दिनों के बाद मित्र दंपत्ति से विदा होकर बेलगांव से बंगलूर आ गए। मैसूर राज्य के दीवान श्री आर.के.शेषाद्रि से स्वामी जी की भेंट हुई। उन्होंने इनकी तरफ आकर्षित होकर मैसूर नरेश महाराजा चाम राजेंद्र वाडियार बहादुर को इनसे परिचित करा दिया। महाराज भी स्वामी जी की अलौकिक प्रतिभा व  उनके पांडित्य का परिचय पाकर विशेष आनंदित हुए और उन्होंने स्वामी जी से राजभवन में रहने के लिए बड़ी श्रद्धा से प्रार्थना की। तब स्वामी जी राजभवन के अतिथि हो गए। मैसूर नरेश बड़े सरल व उदार प्रकृति के थे और स्वामी जी से बहुत प्रभावित हो चले थे। जब स्वामी जी ने वहां से चलने की तैयारी की, तब बुद्धिमान नरेश समझ गए कि अब स्वामी जी को रोकना संभव नहीं। इसलिए उन्होंने उन्हें बहुमूल्य द्रव्यों का उपहार प्रदान किया।       


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