ड्ढकुंडलिनी साधनाएं : कुंडलिनी क्या है

By: Nov 2nd, 2019 12:15 am

आद्यनतमध्येविदुर्वा स भवेद्बधिरः स्मृतः।। 32।। पंचवर्णों मनुर्यः स्याद्रेफार्केन्दुविवर्जिजतः। नेत्रपाहीनः स विज्ञेयो दुःखशोकामयप्रदः।। 33।। जिस मंत्र के आदि, मध्य और अंत में ही हं वा सं बीज हो, उसे बधिर मंत्र कहते हैं।। 32।। पंचाक्षरात्मक एवं र.श.स. रहित मंत्र को नेत्रहीन कहते हैं। नेत्रहीन मंत्र की उपासना करने से शोकित और रोगी होता है।। 33।। आदिमध्यावसानेषु हंसः प्रासादवाग्भवौ। बिन्दयुक्तं हकारं वा फट्कारं वा तथौव च।। 34।। अंकुशं च तथा मायां नमामि च ततः परम्। स एव कीलितो मंत्रः सर्वसिद्धिविवर्जितः।। 35।। जिस मंत्र के आदि, मध्य और अंत में हंसः हौं, एें हं, फट्, क्रौं, हीं एवं नमामि हो तो उसे कीलित मंत्र कहते हैं…

-गतांक से आगे…

आद्यनतमध्येविदुर्वा स भवेद्बधिरः स्मृतः।। 32।।

पंचवर्णों मनुर्यः स्याद्रेफार्केन्दुविवर्जिजतः।

नेत्रपाहीनः स विज्ञेयो दुःखशोकामयप्रदः।। 33।।

जिस मंत्र के आदि, मध्य और अंत में ही हं वा सं बीज हो, उसे बधिर मंत्र कहते हैं।। 32।। पंचाक्षरात्मक एवं र.श.स. रहित मंत्र को नेत्रहीन कहते हैं। नेत्रहीन मंत्र की उपासना करने से शोकित और रोगी होता है।। 33।।

आदिमध्यावसानेषु हंसः प्रासादवाग्भवौ।

बिन्दयुक्तं हकारं वा फट्कारं वा तथौव च।। 34।।

अंकुशं च तथा मायां नमामि च ततः परम्।

स एव कीलितो मंत्रः सर्वसिद्धिविवर्जितः।। 35।।

जिस मंत्र के आदि, मध्य और अंत में हंसः हौं, एें हं, फट्, क्रौं, हीं एवं नमामि हो तो उसे कीलित मंत्र कहते हैं। कीलित मंत्र के जपने से सब सिद्धि नष्ट हो जाती है।। 34-35।।

एक मध्ये द्वयं मूर्धिन यस्मिन्नस्त्रिपुरन्दवौ।

न विद्यते स मत्रस्तु स्तंभितः सिद्धिवर्जिजतः।। 36।।

जिस मंत्र के बीच में लं वा फट् हो और अंत में दोनों बीजों में से एक भी न हो तो उस मंत्र को स्तंभित कहते हैं। स्तंभित मंत्र के जपने से किसी प्रकार की सिद्धि नहीं होती है।। 36।।

वहिन्नार्वायुसमायुक्तो यस्य मंत्रस्य मूर्द्धनि।

सप्तधा दृश्यते तं तु दग्धमन्त्रं प्रचछते।। 37।।

सात अक्षर के मंत्र में र औ यवर्ण होने से उसे दग्ध मंत्र कहते हैं।। 37।।

अत्र द्वाभ्यां त्रिभिः षड्भिरष्टभिर्दृश्यतेअक्षरैः।

स्वस्तः स कथितो मंत्रः सर्वसिद्धिविवर्ज्जितः।। 38।।

दो अक्षर, तीन अक्षर, छह अक्षर, आठ अक्षर और फट्युक्त मंत्र को स्त्रस्त मंत्र कहते हैं। स्त्रस्त मंत्र से सिद्धि नहीं होती है।। 38।।

यस्य नास्ति मुखे माया प्रणवो वा विधानतः।

भीतः स कथितो मंत्रः सर्वसिद्धिवर्ज्जितः।। 39।।

जिस मंत्र के आदि में ही प्रणव इन दोनों में से एक भी न हो तो उसे भीत मंत्र कहते हैं। भीत मंत्र के जपने से सिद्धि नहीं होती है।। 39।।

आदौ मध्ये तथा चान्ते यस्य वर्णचतुष्टयम।

स एव मलिनौ मंत्रः सर्वविघ्नसमन्वितः।। 40।।

जिस मंत्र के आदि, मध्य और अंत में चार-चार वर्ण दृष्ट हों, उसे मलिन मंत्र कहते हैं। मलिन मंत्र के जपने से विघ्न होता है।। 40।।   


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