तरक्की के दिवास्वप्न

By: Nov 21st, 2019 12:05 am

सुरेश सेठ

साहित्यकार

आली जाह, लोकतंत्र में जनता ही तो जनार्दन होती है, इसलिए हम आपकी आंखों में आंख डाल कर दोनों हाथों से ताली बजा कर कहते हैं कि महसूस कीजिए अच्छे दिन आ गए। देश ने बहुत तरक्की कर ली। अभी एक नया सूचकांक सामने आया है जो यह बता रहा है कि अन्य देशों की तुलना में हमारे देश में गरीबी रेखा से नीचे जीते लोगों की संख्या में कमी हुई है। इसका अर्थ यह हुआ कि पहले ऐसे लोग दिन में एक जून रोटी खाते थे, और दूसरी जून ठंडा पानी पी कर खाली पेट पर तबला बजाते थे। अब बेशक स्थिति सुधर गई है। देश के मरभुक्खों को दूसरी जून रोटी देने के लिए तेजी से साझी रसोइयां खोली जा रही हैं, जहां सतयुगी कीमत पर उन्हें खाना प्रदान किया जा रहा है। चाहे इसे प्रदान करने वाले कलियुगी धन्ना सेठ हैं, काले धन के भामासाह हैं या मिलावटखोरी से लेकर हर तरह के नशातंत्र के माफिया डॉन। पहले ये लोग अपने इस अकूत धन से सरकारें बनाने और बिगाड़ने का सांप सीढ़ी खेल खेलते थे। अब जब भूखों का क्त्रंदन बढ़ गया और अपना देश भुखमरे देशों के सूचकांक में भी कई पायदान ऊपर चढ़ गया, तो इन काले धन सम्राटों की अंतरात्मा जागी। क्यों न साझी रसोइयां खोल कर भूखों के पेट में दो टुक्कड़ डाल दो, नहीं तो अन्य देशों की तरह यहां भी भूखों ने रोटी छीनने के लिए दंगे शुरू कर दिए, तो न रहेगा बांस और न रहेगी बांसुरी। अब जब रोम जलता हो तो नीरो को तो बांसुरी बजानी होती है, इसलिए दया और करुणा के नाम पर संसद में भीख मांगना वैध करने का कानून पास करवाया जा रहा है। हम तो कहते हैं कि लगे हाथ रक्षा ही क्या रोजमर्रा के बड़े सौदों में भी दलाली खाने का कानून पास करवा लो। फिर न बोफोर्स कांड होगा, और न ही राफेल कांड के घपले का स्वर गूंजेगा। मेज के नीचे से रिश्वत पकड़ने को तो बाबू लोगों ने पहले ही कानूनी बना रखा है, अब क्यों न सरेआम इसे मेज से ऊपर से पकड़ लिया करें। नागरिकों को काम करवाने का अधिकार अपने आप मिल जाएगा। ये सुविधा केंद्र भी असुविधा केंद्र नहीं कहलाएंगे। बिलकुल उसी तरह से जैसे आप स्वच्छ भारत के शहरों से स्मार्ट शहरों की ओर बढ़ गए। आजकल स्वच्छता और स्मार्ट सूचकांक बन रहे हैं। शहरों द्वारा इनमें घुसपैठ की दौड़ लगाई जा रही है। निरीक्षण के दिन नई सजी बहू की तरह शहर स्वच्छ हो जाते हैं और स्मार्ट भी। स्वच्छ भारत की मुनादी करने वालों का कारवां गुजर जाता है तो बकौल नीरज हम उसका गुब्वार देखते रहते हैं। स्वण नीरज ने तो मोड़ पर रुके-रुके उस वकाया गुब्वार को देखते रहना था। हम तो अपनी मर्जी से रुक भी न पाए। घोषणाओं की भीड़ के ट्रैफिक जाम में धंसे रुके खड़े हैं। पैरों के नीचे की नई धरती टटोलते हैं, तो पाते हैं कि अधूरे फ्लाईओवर पर खड़े हैं। ये वर्षों से अधूरे पड़े हैं, क्योंकि सरकारों का खजाना खाली है और कर मुंशी जी अपनी जेब गर्म करने के अंदा? से लाचार। अभी स्वच्छ भारत की मुनादी करने वाले यहां से निकल गए और अपने पीछे छोड़ गए हैं, कूड़े के डंप, अंधेरे पार्कों के कोने में छिपे जेब तराश और फ्यूज लाइटों वाली निर्जन सड़कों पर अपने ग्राहक टटोलती पेशेवर लड़कियां। उनकी बेबाकी देख कर जाने क्यों लगता है कि भीख मांगने, दलाली खाने, उधार की अर्जियां लगाने की तरह इन पेशेवर लड़कियों का धंधा भी जायजा घोषित हो जाना चाहिए।


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