देव संस्कृति के बीच माफिया

By: Nov 11th, 2019 12:05 am

हिमाचली समाज की हैसियत और हालत का जिक्र करती सरकाघाट की घटना के सरकंडे हमारे वजूद के आसपास आकर खड़े हो जाते हैं। एक बुजुर्ग औरत के आंसुओं के सच में भीग कर हिमाचल लांछित है और अगर अब भी शर्म नहीं, तो यह डूब मरने की स्थिति है। समाज द्वारा डायन शब्द की सूली पर चढ़ी 81 वर्षीया महिला की आबरू के सौदागर कौन थे और यह किस देव संस्कृति की छांव में हुआ। एक धर्मस्थल की नींव पर खड़ा दैत्य और देवताओं के इस्तेमाल में गूंजते नंगे समाज के नारों के बीच वृद्धा के बाल काटने, मुंह पर कालिख पोतने और गले में जूतों की माला डालने की दरिंदगी को हम कैसे कबूल कर सकते हैं, लेकिन सरकाघाट के छोटा समाहल गांव में यह सरेआम हुआ। देवता माहूंनाग के दरबारियों और धर्म की बिरादरियों के सामने एक अक्षम महिला के गले में समाज की लाश लटकती रही और सभी इस एहसास पर जिंदा रहे। ईश्वर की नजदीक ऐसी फौजदारी और हुकुम ऐसा कि देवता खुद शर्म महसूस करें। यह देव संस्कृति के आसपास पनप रहा माफिया है जो आस्था के नाम पर समाज के सौदे कर रहा है। राजदेई नामक यह महिला पंचायत के सामने गिड़गिड़ाई होगी तथा कानून के सामने अपने नागरिक अधिकारों की गवाही देती रही होगी, लेकिन अपाहिज समाज की गलियों से अंधेरा दूर नहीं हुआ। देवता माहूंनाग की संपत्ति पर दांव खेलते ऐसे कौन से शक्तिशाली लोग थे, जो सारी विरासत को लूटकर फिर महाभारत दोहराते हैं और द्रौपदी की आत्मा को रुलाते हैं। बुजुर्ग महिला के घर ‘देवरथ’ लेकर पहुंचे गुंडे अगर धर्म के रक्षक हैं, तो लानत है हम सभी पर और उस मेहनताने पर भी जो सरकारी कोष से मिलता रहा होगा। देव संस्कृति का यह रूप अगर समाज को बेडि़यां पहना रहा है या समाज की आंखों में धूल झोंककर यह माफिया के कब्जे में चल रहा है, तो यह मसला सिर्फ एक राजदेई का नहीं, बल्कि कल कोई और इसी तरह प्रताडि़त होता रहेगा। धर्मस्थल की संपत्तियों से खेल रहे असामाजिक तत्त्वों को प्रश्रय न मिला होता, तो कौन यह जुर्रत करता। अगर एक वीडियो वायरल न होता, तो ऐसे घृणित कर्म की सूचना तक न होती। देवभूमि होने की मर्यादा से बाहर होता समाज अब इष्ट देवता का बहरूपिया होने लगा है और कहीं न कहीं परंपराओं का दुरुपयोग होने लगा है। लोकतांत्रिक अधिकारों के सामने ऐसी हिमाकत का होना, हमारी कानून व्यवस्था पर भी प्रश्न चिन्ह लगाता है। इससे पूर्व स्कूलों में मिड-डे मील के दौरान जातिगत पांतों में बंटे समाज को ऐसे अधिकार किसने दिए और इनके पीछे मौन स्वीकृतियां क्यों मिलने लगीं। कानूनन देव संस्कृति के बदलते अंदाज में सतर्कता की आवश्यकता इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि सरकारी खजाने की देखरेख में कई सौगातें पनप रही हैं। पुरस्कृत परंपराओं के बीच जन विश्वास की परिपाटी अपना ठोस आधार बेशक विकसित करती रही है, लेकिन जहां देवालय महज संपत्ति बन जाएं, वहां कानूनी पारदर्शिता आवश्यक है। राजदेई के साथ हुआ सुलूक सामान्य अपराध न होकर देवशरण में पैदा होते निरंकुश इरादों का खुलासा है। देखना यह होगा कि देव संस्कृति में समाज का ताकतवर वर्ग क्यों माफिया की तरह व्यवहार करने लगा। ऐसे अनेकों फैसले होने लगे हैं, जहां कानून को अपना फैसला करना होता है, लेकिन विश्वास की परंपराओं का दुरुपयोग करके कोई न कोई गूर या देवरथ इनसान के रूप में ठोकरें मारने लगा है। देव संस्कृति के दारोमदार में सामाजिक, सांस्कृतिक फैसलों की तलवारें भांज रहे सेवक, कानून से ऊपर नहीं हो सकते, लिहाजा ऐसे मामले गहन तफतीश की तरफ इशारा कर रहे हैं। पारंपरिक विश्वास की गहन चादर के नीचे किसी कमजोर व्यक्ति के साथ अन्याय हो, तो हमारे पास देव संस्कृति का पालक कहलाने का कोई अधिकार नहीं रह जाता, अतः सरकाघाट की घटना सचेत कर रही है। बेशक राज्य का सीधा दखल ऐसे मामलों में अवांछित समझा जाता है, लेकिन वर्तमान दौर में अवांछित तत्त्वों के दायरों में सिमट रही देव परंपराओं का औचित्य केवल कानून के पहरे में ही सुरक्षित और पारदर्शी हो सकता है, ताकि भविष्य में किसी अन्य राजदेई को समाज के सामने इस तरह बेइज्जत न होना पडे़।

 


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