देश सेवा सर्वोपरि है, इसके सामने निजी तरक्की मायने नहीं रखती

By: Nov 6th, 2019 12:21 am

मेरा भविष्‍य मेरे साथ-11

मैं खुश था कि अधिकारी बनने की क्लास लगाऊंगा। जिस लक्ष्य के लिए मैंने सेना में दाखिला लिया था उसे पूरा करूंगा, पर सीओ साहब की परमिशन के बावजूद कंपनी के हवलदार व सूबेदार मेरे क्लास लगाने से खुश नहीं थे। कल तक जो सूबेदार, हवलदार मेरे खेल में अब्बल आने पर मुझे शाबाशी और हौसला अफजाई करते थे, आज अधिकारी बनने की क्लास लगवाने मात्र से ही मेरे विरुद्ध थे। उनके इस व्यवहार से यह समझ आया कि साथी अच्छा करें यह सब चाहते हैं, पर कुछ ज्यादा ही बड़ा करने लग जाए तो वही साथी रास्ते का रोड़ा बन जाते हैं । मैं जैसे ही क्लास लगवाकर बैरक में पहुंचता मेरे लिए दोपहर बाद का काम और रात की ड्यूटी का फरमान सुना दिया जाता । रात की ड्यूटी को तीन सैनिक मिलकर दो घंटे जागने व चार घंटे सोने के साइकिल से बारह घंटे पूरा करते हैं। सुबह क्लास, दोपहर को काम और रात को ड्यूटी, पढ़ने का समय नहीं था। तब मैंने ड्यूटी के दौरान  स्ट्रीट लाइट के नीचे  सड़क पर बैठकर पढ़ना शुरू किया। अब आलम यह था कि शाम को गार्ड आंबटन के वक्त यूनिट का हर सैनिक मेरे साथ ही ड्यूटी शेयर करना चाहता था, क्योंकि मैं सारी रात स्ट्रीट लाइट के नीचे पढ़ता रहता था। कुछ दिनों में मेरी स्ट्रीट लाइट के नीचे पढ़ने की खबर अधिकारियों तक पहुंची तो आफिस बुला सारी बात समझी। साहब ने मेरी साल की बची हुई एवं अगले साल की एडवांस लीव इक्कट्ठी कर परीक्षा तक छुट्टी और एक छोटे स्टोर में पढ़ने के लिए रातभर लाइट आन रखने की इजाजत दे दी। मुझे भी परीक्षा पास करने का जुनून था, दिसंबर-जनवरी की कड़कती ठंड में जब रात को नींद आती थी तो कभी पागलों की तरह दौड़ना तो कभी खुले पानी के टैंक में सिर डुबो देना। बैरक से निकलते वक्त बिस्तर को फोल्ड कर यह कहता कि मुझे आज सोना नहीं है और जब रात को सोने का मन करता तो फोल्ड बिस्तर देख वापस पढ़ने लग जाता। दिन रात मेहनत कर मैंने अधिकारी की परीक्षा दी और परिणाम आया तो मैं पूरे कोर लेवल के सैनिकों में अव्वल था। सीओ साहब ने खुश होकर मुझे एसएसबी कोचिंग के लिए 10 दिन की छुट्टी भेज दिया, इसी दौरान कारगिल युद्ध शुरू हो गया और हमारी यूनिट को उस में हिस्सा लेने का आदेश आ गया। सभी सैनिक जहां भी ड्यूटी या छुट्टी  पर थे वापस यूनिट में पहुंचे। सभी सैनिकों ने घर के लिए पत्र लिख अपने बाक्स में रख दिया जो शहीद होने पर पार्थिव शरीर के साथ घर भेजा जाता है। मैंने फोन पर मां से बात की और अधिकारी बनने के अपने सपने की तो मां ने रुंधि आवाज में कहा, देशसेवा एवं राष्ट्रप्रेम सर्वोपरि है, उसके सामने निजी स्वार्थ व निजी तरक्की मायने नहीं रखती। जब हम रेल से बॉर्डर की तरफ  जा रहे थे तो मिलने वाले सम्मान और इज्जत देख हम हैरान थे। ज्यादातर रेल संडास के साथ सफर करने वाले सैनिकों को अच्छी सीट पर बैठाया जा रहा था। ऐसे लग रहा था कि हम बड़े ही पूजनीय हैं। जगह-जगह फूल, मिठाइयों से अभिवादन देख हमारे एक हवालदार ने मजाक में कहा कि यह लोग हमारी उस बकरे की तरह पूजा कर रहे हैं जिसकी थोड़ी देर में बलि दी जाएगी। इस हकीकत से भलीभांति वाकिफ  होने के बावजूद हम सब सैनिक अपना घर-गांव, दोस्त-मित्र, परिवार समाज सब भूल देश की रक्षा के लिए निकल चुके थे। युद्ध के दौरान खून से सने कटे हाथ-पैर, पीड़ा से कराहतेे सैनिकों को देख, ख्याल आता आखिर ये क्यों और किसके लिए, पर भावनाओं के सामने देश को सर्वोपरि रख जोर से नारा लगा जोश से आगे बढ़ जाते। मौत को इतने नजदीक से देखने एवं खूनी मंजर ने जिंदगी जीने का नजरिया बदल दिया। कई दोस्तों को खोने के बाद मिली जीत ने बुरे अनुभवों को भूला फिर नए सपनों के साथ जीने में व्यस्त कर दिया।


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