नित्यानुष्ठान न्यासों के जरिए होता है

By: Nov 9th, 2019 12:20 am

वैसे तो प्रत्येक न्यास-विधान के अंत में उसका फल लिखा रहता है, तथापि यह विशेष स्मरणीय है कि जिस प्रकार हम किसी मंत्र का पुरश्चरण या विशेष अनुष्ठान करते हैं, उसी प्रकार केवल न्यासों से भी ये विधियां की जा सकती हैं। इस दृष्टि से नित्यानुष्ठान और काम्यानुष्ठान भी न्यासों द्वारा होते हैं। ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के लाभ केवल न्यास-साधना से ही प्राप्त किए जा सकते हैं। कुछ न्यासों के बारे में कहा गया है – येषां चिकीर्णयाअपि स्यात सिद्धिः सार्वत्रिकी नृणाम्। अर्थात करने की इच्छा से ही लोगों के अभीष्ट सिद्ध हो जाते हैं। जब न्यास द्वारा साधक अपने शरीर में देवत्व का आधार कर लेता है तो उसमें इष्टदेव का निवास होने से उसके लिए प्रायः व्यर्थ की चर्चा करना, किसी को शाप या आशीर्वाद देना एवं किसी को नमस्कार आदि करना सर्वथा वर्जित है…

-गतांक से आगे…

वैसे तो प्रत्येक न्यास-विधान के अंत में उसका फल लिखा रहता है, तथापि यह विशेष स्मरणीय है कि जिस प्रकार हम किसी मंत्र का पुरश्चरण या विशेष अनुष्ठान करते हैं, उसी प्रकार केवल न्यासों से भी ये विधियां की जा सकती हैं। इस दृष्टि से नित्यानुष्ठान और काम्यानुष्ठान भी न्यासों द्वारा होते हैं। ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के लाभ केवल न्यास-साधना से ही प्राप्त किए जा सकते हैं। कुछ न्यासों के बारे में कहा गया है – येषां चिकीर्णयाअपि स्यात सिद्धिः सार्वत्रिकी नृणाम्। अर्थात करने की इच्छा से ही लोगों के अभीष्ट सिद्ध हो जाते हैं। जब न्यास द्वारा साधक अपने शरीर में देवत्व का आधार कर लेता है तो उसमें इष्टदेव का निवास होने से उसके लिए प्रायः व्यर्थ की चर्चा करना, किसी को शाप या आशीर्वाद देना एवं किसी को नमस्कार आदि करना सर्वथा वर्जित है।

न्यास विधि

न्यास कई प्रकार के होते हैं, किंतु ऋष्यादिन्यास, हृदयादिन्यास, अंगन्यास, करन्यास और दिगन्यास ही मुख्य हैं। दश महाविद्या पाठ में ऋष्यादिन्यास, करन्यास और हृदयादिन्यास हैं। उनमें से एक का उदाहरण यहां प्रस्तुत है :

ऋष्यादिन्यास

जब ‘नमः शिरसि’ बोला जाता है तो दाएं हाथ की पांचों उंगलियों को मस्तक से स्पर्श किया जाता है। ‘नमः मुखे’ कहकर होंठों के बीच में ग्रास मुद्रा बनाकर या वैसे ही उंगलियों से मुख का स्पर्श किया जाता है। इसी प्रकार ‘नमः हृदये’ कहकर हृदय का स्पर्श, ‘नमः गुह्ये’ कहकर जननेंद्रिय वाले स्थान का स्पर्श, ‘नमः पादयोः’ कहकर दोनों घुटनों या पंजों का स्पर्श और ‘नमः नाभौ’ कहकर नाभि-स्थल का स्पर्श किया जाता है, जबकि ‘नमः सर्वांगे’ कहकर दोनों हाथों से दोनों भुजाओं एवं समस्त शरीर का स्पर्श करने का विधान है।

करन्यास

यह न्यास पद्मासन की मुद्रा में घुटनों पर हाथ रखते हुए किया जाता है। ‘अंगुष्ठाभ्यां नमः’ कहकर तर्जनी को मोड़कर, अंगूठे की जड़ से जहां मंगल का क्षेत्र है, वहां लगाते हैं। फिर ‘तर्जनीभ्यां नमः’ कहकर अंगूठे की नोक से तर्जनी के छोर का स्पर्श करते हैं। फिर ‘मध्यमाभ्यां नमः’ कहकर मध्यमा का अंतिम भाग, ‘अनामिकाभ्यां नमः’ कहकर अनामिका के अंतिम भाग और ‘कनिष्ठिकाभ्यां नमः’ कहकर कनिष्ठिका उंगली के अंतिम भाग से अंगूठे की नोक का स्पर्श करते हैं। फिर ‘करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः’ कहकर दोनों हाथों की हथेलियों को एक-दूसरे के ऊपर-नीचे दो बार करके एक-दूसरे के ऊपर-नीचे घुमाते हैं।                


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