प्रेस में होने का औचित्य

By: Nov 16th, 2019 12:07 am

अड्डेबाज बहुत हैं, सौदागर बहुत हैं। इनकलाब की सियाही को बस एक कलम भर चाहिए। प्रेस को सम्मानित, संयमित और संतुलित करता यह दिन पुनः याद दिला रहा है कि कभी यह विधा अपने जज्बे से इश्क की दास्तान थी। राष्ट्रीय प्रेस दिवस की औपचारिकता में मंथन के मंच जरूर सजेंगे, लेकिन शब्द की मौलिकता, निष्पक्षता और स्वतंत्रता अब अप्रकाशित सत्य की तरह अपनी शंकाओं के बीच पत्रकार की मंशा को देखती है। यह इसलिए क्योंकि मीडिया का एक बड़ा वर्ग विश्वसनीयता के अभाव में बाजारबाद के खंभों पर चढ़ने की कोशिश में, प्रेस होने के औचित्य को घायल कर रहा है। एक मिशन का मीडिया हो जाना या मीडिया जुनून का जन्नत में चले जाना, हमारे आसपास की तड़क भड़क है। पत्रकारों के अधिकारों में जिक्र अब मजीठिया आयोग की दरख्वास्त बन गया और लेबर कोर्ट के दायरों में भ्रमित संसार का नेतृत्व करती पत्रकारिता भीरू हो गई। सिमट गया अतीत और वह पठन पाठन भी जो कभी पत्रकार के कंधे पर टंगे थैले के मटमैले रंग की पहचान थी। संचार और संवाद के बदलते तरीकों के बीच सोशल मीडिया की लत में टांगें पसार बैठा मीडिया अपनी सकारात्मकता, प्रासंगिकता और गंभीरता ही खो बैठा और अब एक तरह भीड़ में खबर और प्रोपेगेंडा में अंतर घट गया। हमने एक ऐसा पाठक या दर्शक वर्ग तैयार कर लिए जो लोकप्रिय बनाम गंभीर मीडिया के बीच विचारों का भंवर बन गया। यहां पत्रकारिता के आका बदलते हैं और देश के सरोकार अपना खाका बदलते हैं। जनता की सोच बदलने की नई राजनीति जिस तरह देश के चिंतन-मनन पर हावी है, उसे देखते हुए मीडिया या तो टीआरपी ढूंढ रहा है या लोकप्रिय चीजों को पकड़ते-पकड़ते, उन्हीं नारों और जुमलों की जुबान बन रहा है, जो सत्ता की गाथा में संदर्भों की मुद्दाविहीन परिक्रमा बन गई। सोशल मीडिया की गालियों से उभरते क्षितिज को अपना मानने की होड़ में, चुक गए पत्रकार की असमर्थता को स्वीकार करें या ऑनलाइन संवाद के तरकश पर चढ़े मीडिया फसाद को स्वीकार करें। समाज की कुंठाओं, विषमताओं और फरेब की बोलियों से कहीं भिन्न पत्रकारिता की भाषा को अक्षुण्ण बनाने की ताकत तो उसे प्रेस परिषद से भी नहीं मिल रही, जिसके गठन पर आज प्रेस-डे मनाने का औचित्य देख रहे हैं। यह दीगर है कि आज भी मानहानि के अंगारों पर चलने की सजा में मीडिया को हलाल करने की साजिश जिंदा है। बावजूद इसके आज भी पत्रकारिता की झोंपड़ी से उजाले की किरण निकलती है। पापी पेट के सवाल पर न पहले पत्रकारिता हुई और न ही अब इसी लक्ष्य पर आधारित जीवन को कुछ मिलेगा, बल्कि लोकतंत्र के अनुभव तथा अभिव्यक्ति की आजादी के लिए बार-बार ‘गौरी लंकेश’ सरीखे लोग पैदा होंगे। कहना न होगा, ‘रात भर जलती है, मरती है घुली जाती है। नाम को शमा है, अंदाज है परवाने का।’ मीडिया के सामने कई आर्थिक संकट आएंगे, दुनिया बदल जाएगी और सरकारी एजेंसियों के घेरे गला दबाएंगे, लेकिन ‘निगाहें नाज को शर्मिंदा जवाब न कर, मेरे शरीर लबों पर सवाल रहने दो’ पत्रकारिता अपनी बेबाकी की वजह से कल भी जिंदा थी और आइंदा भी जहां संघर्ष होगा, शब्द का अर्थ होगा या कोई पत्रकार केवल जुनून की धरा पर खड़ा होगा, तो सत्य के साथ मीडिया का अवतरण होगा। गौरी लंकेश को न जाने कितनी बार मरना पड़ेगा, लेकिन जिद यही रहेगी कि कलम की आबरू बच जाए। आइए प्रेस दिवस को कुछ यूं रेखांकित करें, ‘खुद को देखो हालात पर नजर रखो, इस इम्तिहान में सभी की निगाह लगी है।’


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