भीतर का विश्वास

By: Nov 2nd, 2019 12:15 am

बाबा हरदेव

हम पाएंगे कि कृत्य बदलने लगते हैं। इनमें से बनावटीपन खोने लगता है और प्रमाणिकता सामने आने लगती है और फिर हमें पता चलता है कि भीतर के प्रकाश ने हमारे बाहर  के कृत्यों को आच्छादित कर दिया है अर्थात इनका गुण धर्म पर आधारित हो गया है और इन कृत्यों का मूल्य भी समाज की नजर में बढ़ गया है। विडंबना यह है कि मनुष्य जब भोजन करता है तब यह कई और कार्य भी साथ ही साथ कर रहा होता है। इसका मन कहीं और  विचरण कर रहा होता है, बुद्धि किसी और उलझन में व्यस्त होती है,जबकि शरीर यहां भोजन में व्यस्त होता है। अब इसमें  कोई शक नहीं कि मनुष्य भोजन तो किसी न किसी तरह से कर रहा होता है, परंतु यह भोजन करना इसकी समग्रता नहीं होती। इसी प्रकार जब मनुष्य से रहा होता है तब वह केवल सोता ही नहीं है, कई यात्राएं कर रहा होता है, जब वह उठता है तो पूरे तौर पर उठता नहीं है,जब वह बैठता है तो केवल बैठा हुआ नहीं होता, क्योंकि उसके शरीर और मन में और उसके द्वारा किए जा रहे कृत्यों में एकता नहीं होती। जबकि वास्तविकता यह है कि बुद्ध पुरुष एक इकाई है और अद्वैत है, यह जो भी हो रहा है यह बुद्ध पुरुष की सम्रगता से इसकी पूर्णता से हो रहा है। जब बुद्ध पुरुष को भूख लगती है तो वह केवल भोजन करता है और ऐसे बुद्ध पुरुष की पूर्णता वहां संलग्न होती है। इसके पीछे फिर कुछ नहीं बचता जो अलग खड़ा हो सके। इसी प्रकार जब वह सो रहा होता है, तो वह पूरा सो रहा होता है अर्थात बुद्ध पुरुष का पूरा का पूरा हृदय कृत्य में अपनी समग्रता से प्रविष्ट होता है। अंत में यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवन मुक्ति का यही तो लक्षण है कि वह किसी भी क्षण शरीर को छोड़ दे कोई पश्चाताप नहीं क्योंकि सब पूर्ण है। वह ठीक से भोजन करता है। उसके लिए और करने को कुछ नहीं बचा। मानो उसका हर कृत्य पूरा होता जाता है क्योंकि वह हर समय हर लिहाज से परमात्मा में पूरा होता है। जब मनुष्य होश में रहकर कुछ करता है तब इसकी चमक दीप्त अलग ही होती है। ऐसे मनुष्य के भीतर प्रभु की याद रूपी ज्योति जली होती है और इसके चारों ओर आभा ओजमयी मंडल प्रकाशमान होता है। महात्मा फरमाते हैं कि धर्म की यात्रा पर केवल विश्वास से काम नहीं चलता, इसलिए  तो संसार में इतने विश्वासी लोगों के होते हुए भी वास्तविक धर्म कहीं दिखाई नहीं देता। साधारणतः लोग विश्वास कर लेते हैं क्योंकि वो अविश्वासी होते हैं, इनके भीतर अविश्वास छिपा होता है और उसी अविश्वास को भुलाने के लिए यह विश्वास करते चले जाते हैं। सच तो यह है कि यह कभी भी अविश्वास को मिटा नहीं पाते क्योंकि विश्वास होता ही किसी अविश्वास के खिलाफ अर्थात विश्वास की जरूरत इसलिए पड़ती है कि भीतर अविश्वास है जिसके भीतर अविश्वास नहीं है वह विश्वास भी नहीं करता।


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