विवाद से परे है ईश्वर का अस्तित्व

By: Nov 9th, 2019 12:20 am

आस्तिकता के इस मूलभूत आधार को जिन्होंने अपनी जीवन शैली बनाया, उनके जीवन व क्रियाकलापों को परमार्थनिष्ठा का आदर्श कहा जा सकता है। परमार्थ का अर्थ ही यह है कि जिससे सर्वश्रेष्ठ प्रयोजन की पूर्ति होती हो। इसी कारण परमार्थ परायणता को आस्तिकता का आधार दर्शन कहा जा सकता है। परमार्थ बुद्धि से जो कुछ भी किया जाता है, जिस किसी के लिए भी किया जाता है, वह लौटकर उस करने वाले के पास ही पहुंचता है…

-गतांक से आगे….

इस पशु प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने से ही मानवी आदर्शों की नींव रखी जा सकती है। इस स्तर की आस्थाएं उत्पन्न करने में आस्तिकतावादी दर्शन से बढ़कर और कोई मनोवैज्ञानिक स्थापना नहीं हो सकेगी। देश-भक्ति, समाजनिष्ठा, अतिमानव आदि के कितने ही विकल्प इसके लिए रखे गए और प्रयुक्त होते रहे हैं, पर उनमें बौद्धिकता अधिक और आध्यात्मिकता स्वल्प रहने से आस्था न बन सकी और नीति के रूप में जो जाना-माना गया था, वह संचित कुसंस्कारों की पशु-प्रवृत्ति के सामने ठहर न सका। मानव जीवन की गरिमा और सामाजिक सुव्यवस्था के लिए साधनों की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी आस्थाओं की है। आस्तिकता का मूलभूत आधार उसी स्तर की आस्थाएं उत्पन्न करना है।

ईश्वर का प्रेम किनके लिए?

आस्तिकता के इस मूलभूत आधार को जिन्होंने अपनी जीवन शैली बनाया, उनके जीवन व क्रियाकलापों को परमार्थनिष्ठा का आदर्श कहा जा सकता है। परमार्थ का अर्थ ही यह है कि जिससे सर्वश्रेष्ठ प्रयोजन की पूर्ति होती हो। इसी कारण परमार्थ परायणता को आस्तिकता का आधार दर्शन कहा जा सकता है। परमार्थ बुद्धि से जो कुछ भी किया जाता है, जिस किसी के लिए भी किया जाता है, वह लौटकर उस करने वाले के पास ही पहुंचता है। तुम्हारी यह आकांक्षा वस्तुतः अपने आपको प्यार करने, श्रेष्ठ मानने और आत्मा के सामने आत्म समर्पण करने के रूप में ही विकसित होगी। दर्पण में सुंदर छवि देखने की प्रसन्नता- वस्तुतः अपनी ही सुसज्जा की अभिव्यक्ति है। दूसरों के सामने अपनी श्रेष्ठता प्रकट करना उसी के लिए संभव है, जो भीतर से श्रेष्ठ है। प्रभु की राह पर बढ़ाया गया हर कदम अपनी आत्मिक प्रगति के लिए किया गया प्रयास ही है। जो कुछ औरों के लिए किया जाता है, वस्तुतः वह अपने लिए किया हुआ कर्म ही है। दूसरों के साथ अन्याय करना अपने साथ ही अन्याय करना है। हम अपने अतिरिक्त और किसी को नहीं ठग सकते। दूसरों के प्रति असज्जनता बरतकर, अपने आपके साथ ही दुष्ट-दुर्व्यवहार किया जाता है। 

 (यह अंश आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा रचित पुस्तक ‘विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व’ से लिए गए हैं।)


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