विवाद से परे है  ईश्वर का अस्तित्व

By: Nov 16th, 2019 12:15 am

मन को मना लिया, आत्मा को उठा लिया तो समझना चाहिए ईश्वर की प्रार्थना सफल हो गई और उसका अनुग्रह उपलब्ध हो गया। गिरे हुओं को उठाना, पिछड़े हुओं को आगे बढ़ाना, भूले को राह बताना और जो अशांत हो रहा है, उसे शांतिदायक स्थान पर पहुंचा देना, यह वस्तुतः ईश्वर की सेवा ही है। जब हम दुख और दरिद्रता को देखकर व्यथित होते हैं और मलीनता को स्वच्छता में बदलने के लिए बढ़ते हैं, तो समझना चाहिए कि यह कृत्य ईश्वर के लिए, उसकी प्रसन्नता के लिए ही किए जा रहे हैं…

 -गतांक से आगे….

दूसरों को प्रसन्न करना अपने आपको प्रसन्न करने का ही क्रियाकलाप है। गेंद को उछालना अपनी मांसपेशियों को बलिष्ठ बनाने के अतिरिक्त और क्या है? गेंद को उछालकर हम उस पर कोई एहसान नहीं करते। इसके बिना उसका कुछ हर्ज नहीं होगा। यदि खेलना बंद कर दिया जाए तो उन क्रीड़ा के उपकरणों की क्या क्षति हो सकती है? अपने को ही बलिष्ठता के आनंद से वंचित रहना पड़ेगा। ईश्वर रूठा हुआ नहीं है कि उसे मनाने की मनुहार करनी पड़े। रूठा तो अपना स्वभाव और कर्म है। मनाना उसी को चाहिए, अपने आप से ही प्रार्थना करें कि कुचाल छोड़े।  मन को मना लिया, आत्मा को उठा लिया तो समझना चाहिए ईश्वर की प्रार्थना सफल हो गई और उसका अनुग्रह उपलब्ध हो गया। गिरे हुओं को उठाना, पिछड़े हुओं को आगे बढ़ाना, भूले को राह बताना और जो अशांत हो रहा है, उसे शांतिदायक स्थान पर पहुंचा देना, यह वस्तुतः ईश्वर की सेवा ही है। जब हम दुख और दरिद्रता को देखकर व्यथित होते हैं और मलीनता को स्वच्छता में बदलने के लिए बढ़ते हैं, तो समझना चाहिए कि यह कृत्य ईश्वर के लिए, उसकी प्रसन्नता के लिए ही किए जा रहे हैं। दूसरों की सेवा, सहायता अपनी ही सेवा सहायता है। प्रार्थना उसी की सार्थक है जो आत्मा को परमात्मा में घुला देने के लिए व्याकुलता लिए हुए हो। जो अपने को परमात्मा जैसा महान बनाने के लिए तड़पता है, जो प्रभु को जीवन के कण-कण में घुला लेने के लिए बेचैन है।  जो उसी का होकर जीना चाहता है, उसी को भक्त कहना चाहिए। दूसरे तो विदूषक हैं। लेने के लिए किया हुआ भजन वस्तुतः प्रभु-प्रेम का निर्मम उपहास है। भक्ति में तो आत्म समर्पण के अतिरिक्त और कुछ होता ही नहीं। वहां देने की ही बात सूझती है, लेने की इच्छा ही कहां रहती है? ईश्वर का विश्वास, सत्कर्मों की कसौटी पर ही परखा जा सकता है। जो भगवान पर भरोसा करेगा, वह उसके विधान और निर्देश को भी अंगीकार करेगा, भक्ति और अवज्ञा का तालमेल बैठता कहां है? हम अपने आपको प्यार करें, ताकि ईश्वर से प्यार कर सकने योग्य बन सकें। हम अपने कर्त्तव्यों का पालन करें, ताकि ईश्वर के निकट बैठ सकने की पात्रता प्राप्त कर सकें। जिसने अपने अंतःकरण को प्यार से ओत-प्रोत कर लिया, जिसके चिंतन और कर्तृत्व में प्यार बिखरा पड़ता है।                                           -क्रमशः

(यह अंश आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा रचित पुस्तक ‘विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व’ से लिए गए हैं।)

 


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