विष्णु पुराण

By: Nov 30th, 2019 12:25 am

तस्त तस्मिंगे दरसमीप परिवर्तिनि।

आसीच्चेनः समासक्त प यथावंता द्विज।।

विमुक्तराज्यतनय प्रोज्झिताशेषांधव।

ममत्व स चकारोच्चैस्त स्मिनन्हरिणबालके।।

कि बृर्कर्भक्षितो व्याघ्रःकिसिहेन निपातितः।

निरायमाणै निष्क्रिंते तस्याः सीदिति मानसम।।

एषा बसुमती तस्य कुराग्रक्षतर्कुबरा।

प्रीतये मम जतोऽसौ क्व ममैणकबालकः।।

विषाणाग्रेण मदबाह्कुंडनयपरो हि सः।

क्षमेणाभ्यागतोरण्यादपि मां सुखयिष्यति।।

ते लूनशिखास्तस्य दशनेरचिरोदगतः।

कुशाःकाशा विराजंते वटवःसामबा इवे।।

इत्य चिरगते तस्मिंस चक्रे मानसः मुनिः।

प्रीतिप्रमन्नवदनःपार्श्वरथे च भवुमृगे।।

समाधिभंगस्त स्यात्तंमयत्वादृनात्मनः।

संतयक्ताराज्यभोगर्द्विस्वजनस्यापि भूपतेः।।

चपल चपले तस्मिंदूरगं दूरगामिनि।

मृगपीतेऽभवच्चित स्यैयवत्तस्य भूर्पतेः।।

कालेन गच्छता सोऽथ काल चक्रे महीपतिः।

पितेव सास्र पुत्रेण मृगपतेन वीक्षितः।।

मृगमेव तदाद्राक्षीत्य जन्प्राणनसावपि।

तन्मयत्वेन मैत्रेय नान्यत्किचिंषछियंत।।

इस प्रकार कभी निकट और कभी दूर चले जाने वाले उस मृग के प्रति राजा का मोह लग गया और वे अन्य विषयों से विरक्त हो गए। जिन्होंने राज्य, वैभव, पुत्र कलत्र, बंधु-बांधव सब कुछ त्याग दिया था, भरत उस मृगशावक के मोह से भर गए। जब वह बाहर जाकर देर से लौटता, तब उन्हें चिंता होती कि कहीं उसे कोई भेडि़या तो नहीं खा गया? किसी सिंह ने तो नहीं धर दबाया। अहा!  उसके खुरों के चिन्ह बनने से यह भूमि कैसी चित्तकबरी लगती है मेरी प्रसन्नता के लिए ही प्रकट हुआ वह मृगशावक आज न जाने किधर चला गया। क्या वह वन से सकुशाल लौटेगा और अपने सींगों के अग्रभाग से मेरे बाहुओं को खुजाकर मुझे सुख देगा। उसके अभी उत्पन्न हुए दांतों से जिनकी दिशाएं कट गई हैं, ऐसे यह कुश शिखा रहित ब्रह्मचारियों के समान कैसे विराज रहे हैं। उस मृग शावक को गए हुए अधिक देर होने पर भरत इस प्रकार चिंता किया करते और जब वह लौटकर उसके पास आ जाता, तब उसे देखकर स्नेहवश उनका मुख खिल उठता था। इस प्रकार उसी में उनकी आसिक्त रहने से राज्य,भोग, ऋषि और स्वजनों को भी छोड़कर आने वाले राजा भरत की समाधि में विघ्न उपस्थिति हो गया। मृग के चंचल होने पर राजा का स्थिर चित्त भी चंचल हो उठता और जब वह दूर चला जाता, तब उनका चित्त भी उसके पास नहीं रहता था। कालांतर में जब राजा भरत ने अपने प्र्राणों का त्याग किया, तब मृग बालक जैसे मरते हुए पिता को पुत्र सजन नयनों से देखता है,वैसे ही उन्हें देखता रहा। हे मैत्रेय जी प्राण त्याग करते समय राजा भी उसी मृग को ही स्नेह पूर्वक देखते रहे और उसी में तन्मय चित्त रहने के कारण उन से कुछ अन्य चिंतन न हो सका।


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