सद्गुरु का प्रसाद है श्रद्धा

By: Nov 9th, 2019 12:20 am

बाबा हरदेव

उदाहरणतः एक व्यक्ति जब कहता है कि वह ईश्वर पर विश्वास करता है, तो यह बात जोर लगा कर कहता है कि वह विश्वास करता है। वह जानता है कि उतना ही ताकतवर अविश्वास इसके भीतर बैठा हुआ है जितना वह विश्वास पर ताकत लगा रहा है। अविश्वास न हो तो विश्वास करने का कोई कारण नहीं रह जाता है। महात्मा फरमाते हैं कि विश्वास मन का हिस्सा है,यह दूसरे के मन का  हिस्सा है इसलिए विश्वास अकसर बोझ हो जाता है। अतः हम कभी भी ऐसा नहीं कहते कि हम सूर्य में विश्वास करते हैं, हम तो बस यह कह देते हैं कि यह सूर्य। लेकिन हम कहते सुने जाते हैं कि हम ईश्वर में विश्वास करते हैं। इसी प्रकार हम कभी नहीं कहते कि यह आकाश है जो चारों ओर फैला हुआ है हमारे, इसमें हम विश्वास करते हैं और अगर कोई व्यक्ति आकर कहे कि सूर्य में विश्वास करता तो क्या इसका विश्वास इस बात को प्रकट नहीं करता कि वह व्यक्ति किसी नेत्रहीन की भांति बात कर रहा है, क्योंकि नेत्रहीन व्यक्ति ही सूर्य में विश्वास की बात कर सकते हैं। इसके विपरीत जिनके पास आंखें हैं, उनकी सूर्य में श्रद्धा होती है। हम सूर्य में विश्वास नहीं करते, क्योंकि  हम भली प्रकार जानते हैं कि सूर्य है, सूर्य की मौजूदगी पर  हमने संदेह नहीं किया, तो विश्वास करने का कोई प्रश्न ही नहीं। बीमार ही नहीं हुए, तो दवा लेने की जरूरत नहीं है। वह जो संदेह हमारे भीतर बैठा है, उसके दबाने का इंतजाम है विश्वास। विश्वास का अर्थ है कि हमारे भीतर कहीं न कहीं अविश्वास मौजूद है, अविश्वास डेरा लगाए बैठा है अतः अविश्वास डगमगाता ही रहता है। क्योंकि विश्वास की कोई जड़ नहीं है इसलिए कोई व्यक्ति अपने विश्वास की चर्चा नहीं करना चाहता। क्योंकि विश्वास की चर्चा करना खतरनाक है इसके नीचे कोई जड़ नहीं है सब ऊपर-ऊपर है, यह जरा सी बात पर गिर जाता है। तत्त्वज्ञानियों का कथन है कि श्रद्धा अकारण है, इसमें वासना, कामना और तृष्णा नहीं होती। श्रद्धा उपकरण नहीं है, बल्कि श्रद्धा अखंड चेतना की श्वास है। श्रद्धा कोई संकल्प भी नहीं है और न ही श्रद्धा ठहरी हुई घटना है। यह होती है तो होती है,नहीं होती तो नहीं होती, कोई चेष्टा करके श्रद्धा नहीं पा सकता। श्रद्धा आम विश्वास या अंधविश्वास भी नहीं है। श्रद्धा सजगता है, यह तो हृदय की आंख के खुलने का नाम है,यह एक आंतरिक भाव है। श्रद्धा व्यक्तियों पर नहीं श्रद्धा सजगता है, यह तो हृदय की आंख के खुलने का नाम है, एक आंतरिक भाव है। श्रद्धा व्यक्तियों पर नहीं श्रद्धा ज्योति पर होती है, यह सत्य पर होती है, ईश्वर पर होती है मानो पूर्ण सद्गुरु का प्रसाद है श्रद्धा। जैसे प्रेम घटित होता है वैसे ही श्रद्धा भी घटित होती है। क्योंकि श्रद्धा मन का हिस्सा नहीं है अतः श्रद्धा का अर्थ होता है बुद्धि को एक तरफ रख कर अलग कर देना अपनी सारी मान्यताएं, धारणाएं छोड़ देना, सब विचार आदि को तिलांजलि दे देना, क्योंकि पूर्ण सद्गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है वह विचार का नहीं है, मान्यता का नहीं है, किसी धारणा का नहीं है, वह केवल श्रद्धा का है प्रेम का है। मानो आत्मीय संबंध है और फिर पूर्ण सद्गरु का इशारा अपने हृदय में बिठा लेना और सदा के लिए सद्गुरु की आंखों में झांकना शुरू कर देना क्योंकि सद्गुरु परमात्मा का ही स्वरूप है इसलिए जब मनुष्य सद्गुरु के पास बैठ जाता है, तब इसके चित्त में विरोध नहीं रह जाता इसका चित्त स्थिर हो जाता है, श्रद्धा विश्राम बना देती है और फिर उपासना और भक्ति में विलीन होना शुरू कर देता है।


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