आत्म पुराण

By: Dec 7th, 2019 12:18 am

हे शिष्य! जब श्वेतकेतु के पिता आरुणि ने यह बात कही, तब श्वेतकेतु का चित्त उसका उत्तर देने में असमर्थ होने से गर्व रहित हो गया। इस कारण उसने श्रद्धापूर्वक पिता को नमस्कार करके कहा, हे भगवन! मैं ऐसी वस्तुओं को नहीं जानता,इसलिए आप कृपा करके उसका उपदेश मेरे प्रति करो। यह सुनकर आरुणि कहने लगा, हे श्वेतकेतु उस वस्तु के जानने से पूर्व तू पहले तीन दृष्टांतों द्वारा इस समस्त जगत को तेज, जल, पृथ्वी द्वारा निर्मित समझ ले और फिर यह समझ कि इन तेज, जल, पृथ्वी का कारण एक परमात्मदेव ही है। हे श्वेतकेतु जब किसी मनुष्य को मिट्टी के ढेले का ज्ञान हो जाता है, तो फिर उसे मिट्टी से बने घट, कुल्हड़ आदि वस्तुओं का ज्ञान भी हो जाता है। अथवा तेज रूप सुवर्ण पिंड की जानकारी हो जाने पर उसे सुर्वण से बने कड़ा-कुंडल आदि आभूषणों को भी जान लिया जाता है।

ऐसा मनुष्य कहीं भी मिट्टी के बरतन या सुवर्ण के आभूषण को देखता है, तो उसे यह संशय नहीं हो सकता कि यह किन पदार्थों के बने हैं। इसी प्रकार वह परमात्मा ही जगत का कारण और परम सत्य रूप है। पर इस संसार में जो पदार्थ दिखाई देते हैं वे कार्य रूप होने से नाम मात्र के ही होते हैं और इसलिए असत्य है। हे शिष्य! इस प्रकार श्वेतकेतु के पिता आरुणि ने उसे अच्छी तरह समझा दिया कि मुत्तिका, सुवर्ण, लौह, अपने-अपने कार्य घट, भूषण, खड्ग की अपेक्षा असत्य हैं। इसी प्रकार परमात्मदेव भी पृथ्वी, जल, तेज, रूप सर्व जगत की अपेक्षा परम सत्यरूप हैं। इसलिए श्रुति भगवती ने उस परमात्मा को सत्य का सत्य नाम से कथन किया है। हे श्वेतकेतु ऐसा परमात्मा देव तुमको भी अवश्य जानना चाहिए। परंतु प्रमादवश उसके विषय में गुरुओं से नहीं पूछा। अतएव जब तुमको पुनः अपने उन गुरुओं के पास जाकर परमात्मा का संपूर्ण ज्ञान उनसे प्राप्त करना आवश्यक है।  इसके पश्चात तू फिर हमारे पास आना। श्वेतकेतु ने कहा, हे पिता जिस परमात्मदेव के ज्ञान से समस्त जगत का ज्ञान होता है, उसके संबंध में हमारे गुरुओं को जानकारी नहीं थी। अन्यथा वे मेरे प्रति इतना अधिक स्नेह रखते थे कि उसका उपदेश मुझे अवश्य ही करते। पर उन्होंने इस संबंध में कभी किसी प्रकार की चर्चा नहीं की, इससे यही प्रकट होता है कि वे इस संबंध में जानते ही न थे। अब इस कार्य के लिए उनके पास जाने से कोई लाभ नहीं हो सकता। इसलिए अब आप ही मुझे इस विषय का उपदेश दें। आरुणि- हे श्वेतकेतु जिस परमात्मा देव का स्वरूप तुमने पूछा है, मैं उसका उपदेश करता हूं। तू गर्व का त्याग करके और सावधान होकर उसे सुन। जो यह नाम, रूप, क्रिया स्वरूप जगत देखने में आता है वह स्थूल और सूक्ष्म की दृष्टि से सत-असत दो रूपों में वर्णन किया जाता है। इस विषय पर बुद्धि द्वारा विचार किया जाता है। ऐसा यह दृश्यमान जगत अपनी उत्पत्ति से पूर्व सत्तामात्र ही था और  उसमें सत-असत का भी विचार नहीं था। हे श्वेवतकेतु जैसे नैयायिकवादी घट-पट आदि पदार्थों में एक सत्ता अंगीकार करते हैं, वह ठीक नहीं  है, क्योंकि वह जड़ है। तुमको भी वही चिदानंदरूप सत्ता स्वीकार करनी है, जिसका वर्णन हमने पहले किया है। जैसे सूर्य के उदय होने से पूर्व सर्वत्र अंधकार ही रहता है,उसी प्रकार इस जगत की उत्पत्ति से पूर्व उस सत्ता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता।


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