आत्म पुराण

By: Dec 14th, 2019 12:16 am

गतांक से आगे…

इसीलिए श्रुति में उसे अव्याकृत कहा गया है। यह सत्ता निर्गुण ब्रह्म रूप होती है और उसी के लिए श्रुति में कहा है।  यतो वाचो निवर्त्तंते अप्राप्य मनसा सह। अर्थात उस सत्ता के विषय में वाणी और मन दोनों की बति रुक जाती है। उस निर्गुण ब्रह्म से पूर्व देश, काल, स्थूल, सूक्ष्म पदार्थ आदि कुछ भी न था। साथ ही उस ब्रह्म में स्वगत-सजातीय कोई भी भेद न था। हे श्वेतकेतु जिस प्रकार एक वृक्ष पत्र, पुष्प, फल, शाखा, स्कंध इत्यादि अवयवों के कारण स्वागत भेद वाला होता है,उस प्रकार यह परमात्मा देव निरवयव होने से स्वागत भेद वाला नहीं हो सकता।  फिर जैसे इस लोक में गौ,अश्व आदि अपने समान जाति वाले अन्य गौ-अश्वों से सजातीय भेद वाले होते हैं वैसे वह परमात्मा देव सजातीय भेद वाला भी नहीं है। इस प्रकार परमात्मा तीनों प्रकार के भेदों से रहित है। इसी भाव से परमात्मा को श्रुति में एक मेवाद्वितीय के रूप में कथन किया गया है।

शंका – हे भगवन! यद्यपि सृष्टि की उत्पत्ति से पहले ब्रह्म में यह कार्य जगत नहीं था, तो भी उस समय माया तो विद्यमान थी। फिर ब्रह्म को अद्वितीय कैसे कहा जा सकता है?

समाधान-हे श्वेतकेतु उस ब्रह्म में यद्यपि वह माया द्वितीय रूप से संभव नहीं है, तो भी उस माया से मोहित अज्ञानी जीव उस ताया को ब्रह्म के अंतगर्त ही समझते हैं। इससे साधारण व्यक्तियों को वह माया ब्रह्म में ही जान पड़ती है। यह ऐसा ही है कि जिस समय को हम प्रत्यक्ष रूप में दिन मानते हैं, वह उल्लू को रात जान पड़ती है।  इसी प्रकार अज्ञानी जीव अपने अनुभव के आधार पर माया को ब्रह्म के साथ ही मानते चले हैं। पर वास्तव में ब्रह्म द्वारा जगत को उत्पन्न करने का वर्णन अन्य प्रकार का है। वह ब्रह्म सृष्टि के आदि में कल्पित माया के संबंध को पाकर वह चिंतन करने लगा कि मैं परमात्मा देव स्वयं ही बहुत रूप वाला बन जाऊं।  मेरे जन्म से ही वह बहुरूपता सिद्ध होगी। इस प्रकार चिंतन करके उस परमात्मा देव ने आकाश आदि पंच भूतों की रचना की। वह परमात्मा प्रत्येक भूत की रचना करने से पूर्व ऐसा ही चिंतन करता रहा।

शंका- हे भगवन! तैत्तिरीय उपनिषद में तो आकाश,वायु, तेज, जल, पृथ्वी इन पांच भूतों की उत्पत्ति बतलाई है और छांदोग्य उपनिषद में तेज, जल, पृथ्वी इन तीनों भूतों की उत्पत्ति ही कही है। इससे इन दोनों उपनिषदों में परस्पर विरोध प्रकट होता है।

समाधान- हे श्वेतकेतु! तेज,जल, पृथ्वी इन तीन भूतों की ही उत्पत्ति का वर्णन करने में छांदोग्य का अभिप्राय यह है के अल्प बुद्धि वालों के लिए पंचीकरण की प्रक्रिया को समझ सकना बहुत कठिन होता है। इसलिए पंचीकरण में उपयोगी आकाश और वायु को छोड़कर तेज जल पृथ्वी का त्रिवृत्करण का वणर्सन किया।  परंतु छांदोग्य का तात्पर्य भी पंचीकरण से ही है और तैत्तिरीय के साथ उसका कोई विरोध नहीं कहा जा सकता। हे श्वेकेतु उस सत ब्रह्म ने तेज को उत्पन्न किया और तत्पश्चात जल और पृथ्वी के लिए श्रुति में अन्न शब्द का प्रयोग किया गया है।        – क्रमशः


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