आवाज़ और खामोशी का उम्दा संगम

By: Dec 22nd, 2019 12:17 am

 पुस्तक समीक्षा

भले ही गज़ल-परदाज़ डा. नलिनी विभा नाज़ली उर्दू शायरी का जाना-माना नाम हैं; लेकिन उनकी श़ख्सियत ऐसी है कि वह आम ज़िंदगी में भी वऱक दर वऱक ही खुलती हैं, अपनी शायरी की तरह। अपनी बात चुपचाप रखने वाली डा. नाज़ली किसी परिचय की मोहताज नहीं; लेकिन वह तमाम तरह की साहित्यिक गुटबंदी से दूर रहना पसंद करती हैं।  उनकी ़गज़लियात की इस साल आई किताब ‘वऱक दर वऱक’ में उनके कहने का अंदाज़, ज़िंदगी के तमाम रंग, अनुभव और ़फल्स़फा पाठकों को सीधे अपने साथ जुड़ने पर मजबूर कर देता है। बलराज कोमल के अनुसार डा. नाज़ली नज़्म और ़गज़ल कहने में बराबर की महारत रखती हैं। उनकी शख्सियत का जादू उनकी शायरी में सा़फ तौर पर नुमाया होता है। उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ भी अनुभव किया, सीखा, उसे अल़फाज़ के मा़र्फत दुनिया तक पहुंचा दिया। उनके ये शे’र देखिए :

ऩक्श-बर-आब है खुशी और गम।

ये बुज़ुर्गों की ह़क बयानी है।।

या फिर उम्र भर सींचा है जिसको खून से।

गुल वो चाहत का महकता क्यों नहीं।।

लेकिन ज़िंदगी की हरारत से परेशान होकर वह कह उठती हैं :

ज़ब्त इतना ‘नाज़ली’ तूने किया।

दम सुलगता है, भड़कता क्यों नहीं?

भले ही ज़िंदगी के तज़रबात ने उन्हें बाहरी तौर पर गंभीर बनने पर विवश कर दिया हो, लेकिन दिल की मासूमियत अभी भी बऱकरार है। उनकी गज़ल का पहला ही शे’र दिल में उतर जाता है :

चलो दिल को फिर से बच्चा बनाकर देखते हैं।

खिलौनों से ही अपना दिल लगाकर देखते हैं।।

लेकिन इसी गज़ल के एक दूसरे शे’र में उससे या ़कुदरत से जुड़ने का हुनर भी ब़खूबी सामने आता है :

समंदर के किनारे बैठ कर लहरों को देखें।

सुने कुछ उनकी, कुछ अपनी सुनाकर देखते हैं।।

एक जगह खुद से सवाल करती हुई वह उसके बारे में पूछती हैं :

सरचश्मः ए अख्लाक दिखाई नहीं देता।

हर जा है खुदा पाक, दिखाई नहीं देता।।

इस तरी़के से शे’र कहने का अंदाज़ उसी शख्स का हो सकता है, जो तमाम उम्र ज़िंदगी की आग में सुलगता रहा हो और बात कहने के इस सली़के को असरदार ढंग से ज़िंदगी में उतार भी लिया हो। जब आदमी यह हुनर सीख जाता है तो वह कायनात के दर्शन को आसानी से जीवन में उतार लेता है। ज़िंदगी से जुड़े तमाम तज़रबात और ़फल्स़फे उसके कहने के अंदाज़ में सा़फ नज़र आते हैं। उन्होंने अपनी शायरी में कायनात के विभिन्न रूपों को बड़ी अदाकारी के साथ पेश करने के अलावा समाज के ठेकेदारों के मुखौटों को बेऩकाब करते हुए तमाम सामाजिक खाइयों, रूढि़यों, विद्रूपताओं और विसंगतियों को भी बेहद असरदार तरी़के से नुमायां किया है। उनके ये शे’र देखिए :

उसके ह़क में बयान देगा कौन।

चीथड़े तन पे, बू पसीने की।।

कई जगहों पर उनके कहने का अंदाज़ दुष्यंत, धूमल और नागार्जुन की तरह प्रतीत होता है। उनका यह शे’र देखिए :

जो ऊंचे लोग मुज्रिम थे, वही माने गए सच्चे।

जो छोटे लोग थे, इल्ज़ाम सारा उनके सर आया।।

ऐसे ही एक दूसरी गज़ल में वह कहती हैं :

सूरज को बांटने के जो वा’दे थे, क्या हुए।

जो थे हमारे ह़क के उजाले कहां गए।।

फिर ‘वऱक दर वऱक’ के आ़िखरी स़फों में ज़िंदगी की बेव़फाई उन पर हावी हो जाती है :

ज़िक्र तेरा ज़बां पे आते ही।

दिल के शीशे में आल आता है।

चैन की नींद कहां है मिरी ़िकस्मत में कभी।

सो गए सब तो मिरी ़फ़क्र के आहू निकले।।

ठीक भी है, अगर शायर भी चैन से सो जाए तो दुनिया के दर्द को ज़बां कौन देगा? उनकी इस किताब में शामिल 367 ़गज़लों में ज़िंदगी के तमाम रंग बिखरे पड़े हैं।

-अजय पाराशर


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