गीता रहस्य

By: Dec 21st, 2019 12:25 am

स्वामी रामस्वरूप

जीव शरीर की इंद्रियों से कर्म करता है, उसका फल भोगता है। परमात्मा जीव के सब कर्मों को देखने वाला है और जीव के सब कर्मों का फल देने वाला है। स्पष्ट है कि परमात्मा कर्मफल तभी देगा जब जीव के सब कर्मों को देखता है, जानता है…

गतांक से आगे…

श्लोक 9/24 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि क्योंकि सब यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूं परंतु वह मुझे तत्त्व से नहीं जानते इस कारण वे गिरते हैं।भावार्थः एक निराकार, सर्वज्ञ, सृष्टि रचयिता परमात्मा ही जीव के सब कर्मों को देख रहा है। जैसा कि ऋग्वेद मंत्र 1/164/20 में कहा,‘द्वा सयुजा सखाया समानं वृक्षं षस्वजतो’ अर्थात एक शरीर में दो चेतन तत्त्व निवास करते हैं, पहला परमात्मा और दूसरा जीव।जीव शरीर की इंद्रियों से कर्म करता है, उसका फल भोगता है। परमात्मा जीव के सब कर्मों को देखने वाला है और जीव के सब कर्मों का फल देने वाला है। स्पष्ट है कि परमात्मा कर्मफल तभी देगा जब जीव के सब कर्मों को देखता है, जानता है।यह ईश्वर का देखना और जानना ही यहां भोक्ता शब्द से समझाया गया है कि ईश्वर जीव के यज्ञादि सब कर्मों का भोक्ता है। यज्ञ का अर्थ देवपूजा, संगतिकरण, दान है। यज्ञा में पांच( माता-पिता, अतिथि, आचार्य एवं परमेश्वर) चेतन देव कहे हैं जैसा कि पीछे समझाया गया है। श्लोक 9/24 का भाव है कि जब जीव वेदाध्ययन आचार्य के साथ वेदों का मनन-चिंतन न करके गृहस्थादि कर्मों में रहकर  माता-पिता, अतिथि अथवा वेद विरुद्ध मनगढ़ंत देवताओं की भक्ति करते हैं और ईश्वर भक्ति को महत्त्व नहीं देते।अर्थात संगतिकरण एवं दान रूप वैदिक कर्म नहीं करते तब भी ईश्वर उनके, जिसका अर्थ पीछे कर दिया गया है केवल माता-पिता अतिथि आदि देवों की सेवा रूप कर्म को देख रहा है और तदानुसार कर्मफल देता है। परंतु ऐसे जीव ईश्वर प्राप्ति नहीं कर पाते। श्लोक 9/24 में ऐसे कर्मों का भी भोक्ता ईश्वर ही कहा है। भोक्ता अर्थात जैसा ऊपर कहा कि कर्मों को देखकर फल देने वाला ईश्वर ही है और ऋग्वेद मंत्र 10/129/7 के अनुसार परमेश्वर प्रकृति एवं जीव दोनों का प्रभु अर्थात स्वामी है। 

                                   – क्रमशः


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