तिब्बत में छिपा है तंत्र ज्ञान

By: Dec 14th, 2019 12:15 am

उसका बाल सुलभ मन, उसका चंचलपन देखते ही बनता था। उसका शरीर सफेद फूलों की लता-सा डोल रहा था। डोलमा का कुछ पता न था। शायद वह किसी कार्य से बाहर चला गया था। कब समय बीत गया, कुछ पता न चला। जिसी ने रात की सारी व्यवस्था कर दी। रात हो गई। सबको नींद आ गई। जाने कितनी रात बीत गई थी। अचानक मैंने अपने कंधों पर ठंडा स्पर्श अनुभव किया। तूफानी ठंडा…

-गतांक से आगे…

उसे हिरण की तरह कुलांचे भरता देखता रह गया मैं। हाथ में पवित्र पद्मचक्र अब भी घूम रहा था। मैं अपने आवास पर आया। नोमग्याल कुछ नहीं बतलाएंगे। कुछ नहीं बोलेंगे। स्पष्ट कह दिया है, आंखें खुली रखूंगा तो बहुत कुछ जान जाऊंगा। किस ओर आंखें खुली रखूं। किस ओर दृष्टि डालूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। तानपे (अतिथिगृह) में अनेक लामा साधु आ गए थे। लंबा अंगरखा पहने वे सब अपने कार्यों में व्यस्त थे। जिसी उन सबकी व्यवस्था में लगी थी। उसका बाल सुलभ मन, उसका चंचलपन देखते ही बनता था। उसका शरीर सफेद फूलों की लता-सा डोल रहा था। डोलमा का कुछ पता न था। शायद वह किसी कार्य से बाहर चला गया था। कब समय बीत गया, कुछ पता न चला। जिसी ने रात की सारी व्यवस्था कर दी। रात हो गई। सबको नींद आ गई। जाने कितनी रात बीत गई थी। अचानक मैंने अपने कंधों पर ठंडा स्पर्श अनुभव किया। तूफानी ठंडा। मैंने हड़बड़ाकर आंखें खोलीं। देखा, जिसी दोनों कंधों पर हाथ रखे झुकी हुई थी। उसका गोल गोरा चेहरा चांद-सा चमक रहा था। वह अपना चेहरा एकदम मेरे चेहरे के पास लाकर धीरे-से बोली-‘कुशोक उठो।’ मैं उठकर बैठ गया। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। ‘आओ।’ कहकर हाथ पकड़कर ले चली। मेरा सारा शरीर सनसना गया। रात को उस सन्नाटे में जिसी हाथ पकड़कर कहां लिए जा रही है? मैं सिहर-सा गया। वह किस द्वार से गोम्फा में ले आई, मैं जान न सका। उसने अपने पतले गुलाबी होंठों पर उंगली रखकर एकदम खामोश रहने का संकेत किया। फिर दबे पांव आंगन में ले आई। ‘जिसी…यह सब क्या है?’ मुझे पसीना छूट रहा था। ‘हिस्स।’ वह और एकांत में ले आई और धीरे-से बोली- ‘घबराते क्यों हो? मुझे तुम पर पूरा विश्वास है। सहमो मत। उधर देखो।’ सामने देखा तो मैं देखता ही रह गया। नोमग्याल पद्मासन में थे। उनका शरीर धरती से कई फुट ऊपर अधर में स्थापित था। पूर्ण रूप से समाधिस्थ थे वह। मैं उन्हें एकटक देखता रह गया। पद्मासन में नोमग्याल हवा में सर्वथा स्थिर थे। मैंने उन्हें प्रणाम किया। ‘देख लिया?’ जिसी ने पूछा। ‘हां।’ ‘चलो अब।’ जिसी हाथ पकड़कर ले आई। शास्ता का अधर में स्थापित शरीर का दृश्य मेरी आंखों के सामने से हट नहीं रहा था। बाहर आकर एकांत में एक स्थान पर जिसी बैठ गई। मैंने पूछा- ‘शास्ता समाधिस्थ थे? क्या रोज समाधि लेते हैं?’ ‘कभी-कभी।’ ‘तुम मुझे दिखाने लाई थी?’ ‘हां। शास्ता ने कहा है, जितना कुछ दिखा सकूं, दिखाती रहूं।’                                                         -क्रमशः

 


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