पुस्तक समीक्षा

By: Dec 8th, 2019 12:14 am

साहित्य और राजनीति को समर्पित किताबें

हवा के ताजे झोंके के साथ ‘दृष्टि’ मेरे हाथ में है। यह लघुकथाओं का एक ऐसा संकलन है जिसे सहेजना ही चाहिए। लघुकथा ‘पंजाबी पुत्तर’ यू शुरू और यूं खत्म हुई और संदेश अपने से कई गुना बड़ा दे गई। अमीर-ए-शहर को मनचले नौजवान का जवाब क्या खूब रहा। ‘दो दिन पहले मैं एक लड़की का बाप बन गया हुजूर, इसलिए।’ लघुकथा एक्शन ऐसी कई कहानियों का झुरमुट है जिन्हें हम बहुतेरी बार बड़े पर्दे और कई कलमकारों से पूर्व में भी देख-सुन चुके हैं। ‘एक मुट्ठी आसमां’ को लेखक कल्पना के दम पर बुलंदी पर तो ले जाता है, मगर उसे धरातल नहीं दे पाता। ‘आत्महत्या’ को पाठक चलते-चलते सरसरी नजर डाल सकते हैं। किताब के करीब 25 पन्ने वरिष्ठ लघु कथाकार मोहन राजेश और डा. लता अग्रवाल की साहित्यिक बातचीत पर आधारित हैं। समय हो तो पढ़ना चाहिए। लिटरेरी समझ बढ़ सकती है। विलाप, सुंदर हाथ, प्रयास और माटी की गंध जैसी लघुकथाएं नवोदित लेखकों-पाठकों को अवश्य ही पढ़नी चाहिएं। इसी पुस्तक में ‘मुक्तिदायिनी’ जैसी लघुकथा नगीने जैसी लगती है। विभा रश्मि ने इसे बड़े लगन से बुना है। संपादक अशोक जैन के प्रयास की कंठमुक्त प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने एक साथ दर्जनों रचनाकर्मियों को स्थान दिया। विविध विधाओं से परिपूर्ण कथाकारों का सृजन एक पोथी में बांधना सराहनीय है। नए विचारों पर केंद्रित लघुकथाओं के अंक ‘दृष्टि’ का प्रकाश में आना साहित्य सेवा का बेहतरीन प्रयास है। ‘दृष्टि’ के इस अर्द्धवार्षिक अंक में 144 पन्ने हैं। किताब एक अच्छे आवरण के साथ अशोक प्रिंटिंग प्रेस चावड़ी बाजार दिल्ली से प्रकाशित हुई है।

— ओंकार सिंह

कहानी मोदी 2.0 की

भारत की चुनाव-केंद्रित राजनीति लेखकों-समीक्षकों के लिए हमेशा से आकर्षण का विषय रही है। वादों, प्रतिवादों और विवादों से घिरी भारतीय राजनीति और चुनाव प्रक्रिया इस कदर एक-दूसरे से जुड़ी हैं मानो एक-दूसरे की पूरक हों। चुनाव-दर-चुनाव नेता और नारे बदलते रहे हैं, पर क्या इतने सालों में राजनीति के मुद्दों में भी कोई आधारभूत बदलाव आया है, मसलन भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, प्रांतवाद, राष्ट्रवाद आदि। ऐसे ही राष्ट्रव्यापी मुद्दों की पृष्ठभूमि में नरेंद्र मोदी ने किस प्रकार अपनी चुनावी रणनीति तैयार कर दूसरी बार अप्रत्याशित विजय प्राप्त की, यह सबके लिए एक कौतूहल का विषय है। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अकु श्रीवास्तव की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘चुनाव 2019 : कहानी मोदी 2.0 की’ इसकी गहरी पड़ताल करती है। बहैसियत एक राजनीतिक पत्रकार अकु श्रीवास्तव को देश की राजनीतिक धारा और चुनावी प्रक्रिया में होने वाले बदलाव को नजदीक से देखने-समझने और उस पर टिप्पणी करने का कई दशकों का अनुभव रहा है। समाचारपत्रों में प्रकाशित राजनीतिक विश्लेषण और टीवी चैनलों पर चुनावी समीक्षाओं के माध्यम से वे लंबे समय से पाठकों और दर्शकों से जुड़े रहे हैं। पर अब इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने भारतीय राजनीति के एक ऐसे कालखंड और उसके चुनावी मुद्दों और परिणामों का विश्लेषण किया है जिसे आने वाली पीढ़ी मोदी युग के नाम से याद करेगी। ऐसे में लेखक का यह प्रयास जिसमें न कि सिर्फ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को मिली अप्रत्याशित सफलता की राजनीतिक समीक्षा बल्कि क्षेत्रवार चुनाव परिणामों और आंकड़ों की फेरहिस्त भी है, जो पाठकों को भारत की राजनीति के मुद्दे और उनके चुनावी परिणाम के अंतर्संबंधों को समझने में मदद करेगा। ‘कहानी मोदी 2.0’ में लेखक ने इस बात को रेखांकित करने का प्रयास किया है कि भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति की बात तो सभी नेता करते आए हैं, लेकिन क्या वजह है कि अब तक जनता ने किसी पर भी इतना विश्वास नहीं किया जितना कि नरेंद्र मोदी पर… लेखक ने मोदी के चौकीदार बनाम नामदार, बालाकोट, काले धन जैसे अनेक चुनावी मुद्दों पर भी चर्चा की है जिसको लेकर वह जनता के बीच में गए और उसका प्रचुर विश्वास प्राप्त किया। कांग्रेस और एक समय भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का हिस्सा रहे अरुण शोरी और यशवंत सिन्हा द्वारा विपक्ष के सुर में सुर मिला कर राफेल डील को मुद्दा बना मोदी को घेरने की नाकाम कोशिश का जिक्र भी अकु श्रीवास्तव करते हैं, पर उनका इशारा इस बात की ओर है कि महज आरोप से भ्रष्टाचार सिद्ध करना स्वयं अपनी विश्वसनीयता पर सवाल उठाने जैसा होता है।

— मिहिर भोले


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