पौंग बांध के हाशिए

By: Dec 14th, 2019 12:03 am

पूर्व मंत्री एवं सांसद रहे डा. राजन सुशांत के तेवरों से जो लोग वाकिफ हैं, उनके लिए यह घटनाक्रम एक तरह की वापसी कर रहा है। दरअसल पूर्व सांसद उसी तट पर उद्वेलित हैं, जिसकी परिधि में बतौर विधायक उन्होंने लगभग एक साल धरना देकर शाह नहर की परिकल्पना को साकार करवाया था। अब विषय पौंग झील के किनारों पर उगती वसंत जैसा है, जो एक तरफ भूमिहीन विस्थापित किसानों को गेहूं उगाने की छूट देना है तो साथ ही सियासत के हाशिए पर खड़े सुशांत को पुनः स्थापित करना है। जाहिर तौर पर पौंग झील का 12650 वर्ग किलो मीटर का क्षेत्रफल इतनी हैसियत व हसरत तो रखता है कि इसके वजूद से तबाह हुए लोग अपने अधिकारों के लिए प्रतिनिधित्व चुन सकें। डूबे मंजर और डूबी जमीन से कितने ही नेता निकले और विस्थापितों की बात करने के लिए मंचों पर सुशोभित हुए, लेकिन राजन सुशांत के अलावा कोई अन्य नेता इस मसले पर कभी उग्र नहीं दिखा। अब निगाहें करीब 307 वर्ग किलो मीटर तक फैले वेट लैंड पर इसलिए ठहर जाती हैं, क्योंकि जल स्तर उतरते ही पुरखों की जमीन फिर से यादों की समाधि से बाहर, बूढ़े हो चुके हल-लावारिस बैल को मेहनत करने का अवसर देती है। यहां अब कई तरह के मानवीय विवाद तथा कानून के पहलू हैं, जो आहों को मुआवजे के सिक्कों की छांव में दफन करना चाहते हैं। स्थानीय जनता पौंग झील के लिए विस्थापित हुई, लेकिन प्रवासी नहीं बनी। उससे मिट्टी छिनी गई, लेकिन आकाश के परिंदों को प्रवासी होने का हक मिल गया। परिंदों की उड़ान मानवीय समझी गई, क्योंकि देश के कानून वन्य प्राणी हिफाजत में कहीं अधिक दक्ष प्रतीत होेते हैं। क्यों नहीं एक विस्थापित को प्रवासी पक्षी की तरह माना जा सकता है या उसे अपने पूर्वजों की धरती पर प्रवासी पक्षी की तरह विचरने की अनुमति मिलती। अपनी जड़ों से रिश्ता रखना अगर व्यक्तिगत निष्ठा हो सकती है, तो विस्थापितों के लिए ऐसा विशेषाधिकार क्यों नहीं। पूर्व सांसद ने बेशक बीबीएमबी की मिलकीयत खोद दी या सरेआम वन्य प्राणी कानून का उल्लंघन कर दिया, लेकिन इस तथ्य को कैसे भूल जाएं कि इस जमीन पर कभी मानव बस्तियां थीं या जो डूबे, वे आज तक दर-दर भटक रहे हैं। यह दो तरह के अधिकारों का युद्ध है। एक इनसानी या जज्बाती, दूसरा नए विश्व के मूल्यों का संघर्ष है। नया विश्व पर्यावरण से वन्य प्राणी संरक्षण तक के संदर्भों को सशक्त करते हुए सृष्टि की संरचना को अपने हिसाब से देखने लगा है, जबकि प्रतिकूल परिस्थितियों में इनसानी मसलों को मसला जा रहा है। हम सुशांत के युद्ध क्षेत्र को महज सियासी करार दें या यह कह दे कि पौंग की जमीन पर चंद लठैत या धन्नासेठ कब्जा करके ढेरों अनाज उगाते हैं, लेकिन इस सरहद पर की जा रही बयानबाजी या कानून के दखल से विस्थापित या बांध से प्रभावित जनता को इनसाफ नहीं मिलता। इस गुस्से में अगर नाफरमानी है, तो उस समझौते का अन्यायपूर्ण रवैया भी तो समझा जाए जो वर्षों बाद भी विस्थापितों को वादे अनुसार राजस्थान में चिन्हित जमीन नहीं दिला पाया। जिंदगी की कशमकश में अगर झील से उतरते पानी में किसी को चंद महीनों के लिए अपना आसरा उगाने को जमीन मिल गई, तो इसे ताले में बंद करना इनसाफ है या ताले में बंद विस्थापितों के अधिकारों को मुक्त कराने तक यह एहसान करना मानवीय होगा। बहरहाल इनसानी तकरीरों से परे भारतीय प्रगति के मूल सिद्धांतों से बेदखल पौंग विस्थापित अपना हिसाब किससे मांगे, दर्द किससे बांटें। ऐसे में पुनः राजन सुशांत को उसी जमीन पर रेखांकित होने का अवसर जरूर मिल रहा है, जहां कभी वह पहले भी पानी के लिए संघर्ष कर चुके हैं। पौंग विस्थापितों के सामने फिर से राजन सुशांत की तस्वीर बड़ी हो रही है, तो यह भी तसदीक हो रहा है कि यह बंदा अपने संघर्ष की जुबान से पुनः जननायक होने की मिट्टी पर खड़ा हो चुका है।


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