बढ़ता अपराध विकृत मानसिकता की उपजलाभ सिंह
लाभ सिंह
लेखक, कूल्लू से हैं
हम महिलाओं के लिए सामाजिक और लैंगिक न्याय की बात करते हैं, उनके सशक्तिकरण की बात करते हैं, महिला दिवस मनाते हैं, उनकी सुरक्षा के लिए सशक्त कानून की बात करते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि आज भी एक पिता पुत्री को बोझ, पति उसे दासी और अन्य व्यक्ति उसे मादक द्रव्य के रूप में देखता है…
कभी दिल्ली मे निर्भया, तो कभी हिमाचल में गुडि़या और आज हैदराबाद में प्रियंका तो कल देश के किसी कोने में कोई और नाम होगा। आखिर कब तक यह सिलसिला जारी रहेगा और हम दिल पर पत्थर रख कर चुपचाप इसे सहते रहेंगे? हम महिलाओं के लिए सामाजिक और लैंगिक न्याय की बात करते हैं, उनके सशक्तिकरण की बात करते हैं, महिला दिवस मनाते हैं, उनकी सुरक्षा के लिए सशक्त कानून की बात करते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि आज भी एक पिता पुत्री को बोझ, पति उसे दासी और अन्य व्यक्ति उसे मादक द्रव्य के रूप में देखता है। जब तक इस मानसिकता में परिवर्तन नहीं आएगा तब तक महिला सुरक्षा कानून की किताबों में, भाषणों में और सरकार की नीतियों तक ही सीमित रहेगी, लेकिन सवाल यह है कि इस मानसिकता में परिवर्तन आएगा कैसे? यह विकृत मानसिकता किसी इनसान में आखिर जन्म कैसे लेती है।
कुछ लोग कहेंगे कि फांसी दे दो बात खत्म। क्या फांसी देने से अपराध रुक जाएंगे? निसंदेह जिसने इस तरह से मानवीय पराकाष्ठा की सभी सीमाएं लांघ कर एक दानवीय कुकृत्य किया हो उसे फांसी तो होनी ही चाहिए। क्या इससे देश के अलग-अलग कोनों में हो रहे अपराध भी रुक जाएंगे? अगर फांसी दिए जाने के डर से किसी की मानसिकता में परिवर्तन लाना संभव होता तो सऊदी अरब जैसे देश जहां फांसी से भी भयानक सजाएं दी जाती है वहां कोई अपराध ही न होता। दूसरी तरफ अमरीका और कनाडा के वे प्रांत जहां अब भी फांसी की सजा दी जाती है उन प्रांतों में पिछले कुछ वर्षों में यह पाया गया है कि अपराधों में बढ़ोतरी हुई है। महिलाओं के खिलाफ अपराध प्राचीन राजाओं के काल में भी होते थे और ब्रिटिश काल में भी। उस दौरान फांसी की सजा तो बहुत ही सामान्य बात थी।
यहां तक भारत में अंग्रेजी शासन के दौरान फांसी आम जनता के बीच भी दी जाती थी। ऐसे में आज जब हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने की भूमिका निभा रहे हैं तो फांसी की सजा पर और भी ज्यादा सवाल खड़े हो जाते हैं। तो क्या फांसी के अलावा कोई अन्य उपाय भी है जिससे इन अपराधों को कम किया जा सकता है? जवाब है हां, लेकिन यह जानने से पहले हमें महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों की स्थिति और वर्तमान में उनकी सुरक्षा के लिए कानूनी ढांचे को समझना होगा। हमें समझना होगा की सामाजिक तथा लैंगिक न्याय और महिला सशक्तिकरण जिसकी अकसर हम बात करते हैं उसके क्या मायने हैं और सरकार द्वारा इस दिशा में अब तक क्या-क्या प्रयास किए गए हैं। महिलाओं के खिलाफ क्रूरता और घरेलू हिंसा के अधिक मामले होना व बलात्कार केसों में नजदीकी रिश्तेदारों का शामिल होना यह बताता है कि अपराधी पीडि़ता के आसपास रहने वाला ही है।
ऐसे में आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करके व पुलिस गश्त बढ़ाकर हम हो सकता है कि महिलाओं को बाहरी लोगो से बचाने में कामयाब भी हो जाए, लेकिन अपराधियों का एक बड़ा हिस्सा जो घर के अंदर बैठा है उनसे कैसे निपटेंगे यह भी एक चिंता का विषय है। हालांकि क्रूरता और घरेलू हिंसा की समस्या से निपटने के लिए भारत में घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम 2005ए दहेज निषेध अधिनियम 1961 लागू है और आईपीसी की धारा 498 के अंतर्गत दहेज के लिए प्रताडि़त करने के विरुद्ध सजा का प्रावधान है। आईपीसी की धारा 376 में बलात्कार के लिए दंड का प्रावधान है। साथ ही लड़कियों के लिए 18 वर्ष से कम आयु में शादी करना कानूनी रूप से निषेध है, लेकिन सर्वे बताते हैं आज भी 18 प्रतिशत लड़कियां भारत में 18 साल की उम्र से पहले ही शादी कर लेती हैं।
भारत में कानून की यही लचर स्थिति, पुलिस में स्टाफ की कमी और महिलाओं के प्रति उनकी असंवेदनशीलता तथा पारिवारिक दबाव और रिश्तों को टूटने का डर महिलाओं को उनके खिलाफ हो रहे अपराधों के खिलाफ बोलने से रोकता है। वहीं अगर कोई हिम्मत जुटाकर अपने अधिकार के लिए लड़ती भी है तो केसों के अत्यधिक दबाव तले दबी न्यायपालिका उन्हें न्याय दिलाने में वर्षों लगा लेती है। पिछले 7 सालों से निर्भया केस के बहुचर्चित अपराधी भी फांसी का इंतजार कर रहे हैं। एक सामान्य महिला के केस की सुनवाई और निष्पादन में कितना समय लगता होगा यह अंदाजा लगाया ही जा सकता है। ऐसे में एक महिला करें भी तो क्या करें?
महिलाएं जो आबादी का आधा हिस्सा है उनके संदर्भ में सामाजिक और लैंगिक न्याय का अर्थ उन्हें समाज में शैक्षणिक, राजनीति, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में पुरुषों के बराबर स्वतंत्रता तथा समानता और विकास के सभी संसाधनों तक उनकी आवश्यक पहुंच स्थापित करना है। दूसरा उनके साथ लिंग के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव न हो यह आवश्यक है। हम एक बार अगर समाजिक व लैंगिक न्याय स्थापित कर लेते हैं तो सशक्तिकरण का रास्ता महिलाएं स्वयं तय कर लेंगीं, लेकिन लैंगिक न्याय और महिला सशक्तिकरण में सबसे बड़ी बाधा पितृसत्तात्मक सोच और पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता होना है।
महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों को रोकने के लिए भी हमें मानवीय सोच में ही परिवर्तन लाने की जरूरत है। मानवीय सोच में परिवर्तन लाने के लिए जैसा कलाम साहब कहा करते थे ‘एजुकेशन विद वैल्यू सिस्टम’ यानी नैतिक मूल्यों के साथ शिक्षा और ये नैतिक मूल्य अगर हमारे घर के आंगन मे बचपन से लेकर विश्वविद्यालय के परिसर में जवानी तक बने रहतें हैं तो अपराध की तस्वीर ही दिमाग से मिट जाएगी।
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