लोक नाट्य-करयाला

By: Dec 8th, 2019 12:16 am

जनमानस के हास्य एवं मनोरंजन का सजीव माध्यम

नेम चंद ठाकुर

मो.-9418033783

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि और संभावना-6

अतिथि संपादक : अशोक गौतम

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि तथा संभावनाएं क्या हैं, इन्हीं प्रश्नों के जवाब टटोलने की कोशिश हम प्रतिबिंब की इस नई सीरीज में करेंगे। हिमाचल में व्यंग्य का इतिहास उसकी समीक्षा के साथ पेश करने की कोशिश हमने की है। पेश है इस सीरीज की छट्ठी किस्त…

विमर्श के बिंदू

* व्यंग्यकार की चुनौतियां

* कटाक्ष की समझ

* व्यंग्य में फूहड़ता

* कटाक्ष और कामेडी में अंतर

* कविता में हास्य रस

* क्या हिमाचल में हास्य कटाक्ष की जगह है

* लोक साहित्य में हास्य-व्यंग्य

लोक मान्यता के अनुसार देवताओं के आग्रह पर नटराज शिव ने अपने परम प्रिय शिष्य ताण्डु से भरतमुनि के सौ पुत्रों और गंधर्वों को ताण्डव नृत्य की शिक्षा दिलाई। शिव की पत्नी पार्वती ने लास्य नृत्य (वाद्य और गीतों के संयोग से मूलतः महिला नृत्य) सर्वप्रथम बाणासुर की पुत्री और अनिरुद्ध (कृष्ण का पोता और कामदेव का अवतार) की अर्धांगिनी उषा को सिखाया। उषा ने यह कला द्वारिका की गोपियों को सिखाई। धीरे-धीरे यह कला सम्पूर्ण पृथ्वी पर फैल गई। इसी से हिमाचल प्रदेश में अनेक लोक नाट्य मसलन- रली-पूजन, तुपु, देवता का खेल, ठोडा, करयाला, स्वांग, चंदरौली, बरलाज व जगराता, सिठणी, रामलीला, बुछैन, हरणातर और धाज्जा आदि लोक नाट्य विधाओं का जन्म हुआ। बरबस ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।

जंगताल से शुरू होता है करयाला

लोकमानस के हास्य और मनोरंजन की सबसे अहम विधा लोक-नाट्य करयाला विश्व रंगमंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका है। करयाला किसी भी समय का लोक-नाट्य है और वर्ष भर चलता रहता है, परंतु इसके प्रदर्शन का असली समय सर्द ऋतु मानी जाती है। वास्तव में करयाला दिवाली से आरंभ होता है। इन दिनों वर्ष भर के कड़े परिश्रम के बाद कृषक अपने खेतों और खलिहानों से निवृत्त हो जाते हैं और उसे मनोरंजन की लालसा रहती है। जनमानस की इस लालसा की पूर्ति करियालची बड़ी सफलता से करते हैं। करयाले में दर्शकों के मनोरंजन के लिए संवाद प्रस्तुत करते हुए किसी प्रकार के शब्दों का बंधन नहीं होता। करयाला के लिए किसी विशेष मंच की आवश्यकता नहीं होती। यह प्रकृति के खुले प्रांगण का लोकनाट्य है और प्रायः रात के समय ही खेला जाता है। प्रांगण के कुछ भाग में चारों तरफ  छोटे-छोटे खम्भे खड़े करके उसमें रस्सी बांधकर एक चौकोर वर्ग बना लिया जाता है। एक लकड़ी के डण्डे से गोल रेखा खींच ली जाती है जिसके बाहर चारों तरफ  दर्शक आसीन होते हैं। इसके साथ ही कुछ दूरी पर करियालचियों की तैयारी के लिए दो-तीन चादरें तानकर एक छोटा तम्बू या कोई छोटा कमरा अथवा घास का छप्पर बना होता है। यहीं पर करियालची अपना हार-श्रृंगार करते हैं। इसे श्रृंगार कक्ष समझना बेहतर होगा। रस्सियों से घिरा हुआ चौकोर स्थान या डण्डे से खींची गई गोल रेखा का वृत्ताकार स्थान ही मंच होता है जिसे खाड़ा (अखाड़ा शब्द का अपभ्रंश रूप) कहा जाता है। इसके पास ही जलाई आग को स्थानीय भाषा में धूनी या घयाना कहा जाता है। इस घयाने की आग को पवित्र माना जाता है। यह आग जहां रात भर प्रकाश का काम देती है वहीं सर्दी के मौसम में ठंड से ठिठुरते लोगों को गर्मी देती है। अखाडे़ के एक ओर वादक बैठ जाते हैं। करनाल, रणसिंहा, चिमटा, नगारा, शहनाई, बांसुरी, ढोलक, खांजरी आदि करयालचियों के वाद्ययंत्र हैं। करयाला जंगताल से आरंभ होता है। इसकी मधुर तान दर्शकों के लिए निमंत्रण की घड़ी होती है। बजंतरी अपने संगीत से दर्शकों का स्वागत करते हैं। इसे बधाई ताल भी कहा जाता है। परिमार्जित भाषा में इसे मंगलगान भी कहा जा सकता है।

मंच पर चंद्रावली का प्रवेश

बधाई ताल के बजते ही चंद्रावली लक्ष्मी के रूप में हाथ में जले हुए धूप-दीप थाली में लिए हुए अखाड़े में प्रवेश करती है। पुरुष कलाकार ही स्त्रियों की वेश-भूषा में चंद्रावली बनता है। चंद्रावली मंच पर आते ही एक हाथ आकाश की ओर करके सरस्वती का आह्वान करते हुए वाद्य यंत्रों को छूती है। अखाड़े की परिक्रमा करती है तथा वाद्य यंत्रों एवं दर्शकों के ऊपर जलते धूप का पात्र घूमाकर कार्यक्रम का शुभारंभ करती है। उसके बाद घयाने के चारों ओर चंद्रावली करियाले की ताल पर नृत्य करती है। उसका यह नृत्य लगभग दस मिनट तक चलता है। उसके बाद मशालों या दीपों को जलाया जाता है जिसे अखाड़ा बांधना कहा जाता है। वैसे, अखाड़ा बांधने का विधान हर मंडली का अपना-अपना होता है। पूजा के वक्त निम्न आरती गाई जाती है-

जय जय कारी देव बिज्जू

हे देव बिज्जू छप छप पति राजा देवा

कनि रे कायदा है तेरा करयाला

देव तेरे नांव रा करयाला कबूल कर

ये बोल ऐसा रे बेटे री ब्याह रा था

छेवा ऐसारा बोल छिज्जे

पिछला बोल था अग्गे रक्षा रख माराज

जिथे तक याद करे जिंदगी

सही होवे।

चंद्रावली विभिन्न पहाड़ी धुनों पर नृत्य करने के पश्चात् वापस श्रृंगार कक्ष में चली जाती है। चंद्रावली के बाद जनमानस के हास्य मनोरंजन के लिए स्वांग, छोटे स्वांग शुरू होते हैं। एकाएक दर्शकों के बीच में से या कहीं बाहर भीड़ को चीरता हुआ अलख जगाता हुए साधुवेश में एक करयालची मंच की ओर लपकता है। उसके साथ ही चारों दिशाओं से साधु मंच की ओर लपकते हैं। दर्शकों की दृष्टि पड़ते ही अभिनय शुरू हो जाता है। स्वांग की कोई अवधि नहीं होती। ये भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं जैसे- साधु का स्वांग, बुद्धु का स्वांग, चूर्ण वाले का स्वांग, जोगी-जोगन का स्वांग, साहब – मैम का स्वांग आदि आदि। छोटे स्वांगों में लम्बरदार का स्वांग सबसे मनोरंजनपूर्ण होता है। लम्बरदार रियासत काल में गांव में रियासत का राजस्व प्रतिनिधि होता था जिसका मुख्य कार्य राजस्व वसूलना होता था। इसके अलावा वह छोटे-मोटे कार्य भी निपटाता था। अंत में यह स्वांग व्यंग्य विनोद के साथ सामाजिक बुराइयों पर कटाक्ष करते हुए समाप्त होता है।

डाऊ-डायन का स्वांग

इस स्वांग के माध्यम से समाज में व्याप्त अंधविश्वासों जैसे जादू-टोनों आदि पर सुंदर कटाक्ष करते हुए इस बुराई को उजागर किया जाता है।

मनोरंजक खबरें

खबरें मतलब समाचार! इस स्वांग में दो पात्र होते हैं। एक समाचार सुनाने वाला और दूसरा सुनने वाला। स्वांग का अंत दोनों के हंसी विनोद के साथ होता है। खबरों के कुछ नमूने देखें- धर्मशाला की सगाई हो रही थी पर मंडी ने पांजी मार दी। अभी-अभी समाचार मिला है कि पूह के सोनु ढाबे में चटनी चार चपातियों के साथ फरार हो गई है। यदि किसी को इनकी कोई सूचना मिले तो तुरंत चंबा के थाने में इतला करें। संक्षेप में कहा जाए तो कहने को लोकसाहित्य की इस सबसे लोकप्रिय विधा पर लिखने, शोध करने को अभी भी बहुत कुछ बाकी है, परंतु इतना तय है कि आज मनोरंजन के बीसियों साधन उपलब्ध होने के बाद भी लोकसाहित्य की इस परंपरा का वजूद लोकमानस में ज्यों का त्यों बरकरार है। करयाला आज भी जनमानस में हास्य मनोरंजन के साथ ही साथ उसके लोक विश्वास में भी गहरे तक रचा-बसा है।

 


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App