लोक हास्य-व्यंग्य में सीठणी :विलुप्त होती प्राचीन परंपरा

By: Dec 15th, 2019 12:15 am

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि और संभावना-7

अतिथि संपादक : अशोक गौतम

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि तथा संभावनाएं क्या हैं, इन्हीं प्रश्नों के जवाब टटोलने की कोशिश हम प्रतिबिंब की इस नई सीरीज में करेंगे। हिमाचल में व्यंग्य का इतिहास उसकी समीक्षा के साथ पेश करने की कोशिश हमने की है। पेश है इस सीरीज की सातवीं किस्त…

विमर्श के बिंदु

* व्यंग्यकार की चुनौतियां

* कटाक्ष की समझ

* व्यंग्य में फूहड़ता

* कटाक्ष और कामेडी में अंतर

* कविता में हास्य रस

* क्या हिमाचल में हास्य कटाक्ष की जगह है

* लोक साहित्य में हास्य-व्यंग्य

बद्री सिंह भाटिया

मो.-9805199422

हिमाचल प्रदेश बारह जिलों और छोटे-छोटे जनपदों, घाटियों में बसा प्रदेश है। लगभग हर घाटी की अपनी एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा है। कमोबेश कुछ परंपराओं के निर्वहन में आस-पास के समाजों और कई बार आयात परंपराओं का समावेश भी देखने सुनने को मिलता है। इनमें वैवाहिक परंपराएं कुछ तो यथातथ्य पारंपरिक रूप से चल रही हैं तो कुछ में यत्र-तत्र अनेक परिवर्तन परिलक्षित होते हैं। यह लोगों के दूसरे क्षेत्रों में आने-जाने से संभव हो पाया है। लोकगीतों का हर लोक संस्कृति में अपना खास महत्त्व है। लोकगीत हिमाचल की संस्कृति की आत्मा हैं। ऐसे में अन्य गीतों की ही तरह विवाह कार्यक्रमों में महिला संगीत का अपना अलग महत्त्व है। यदि किसी विवाह समारोह में विभिन्न अवसरों पर महिलाएं गायन हेतु न पहुंचे तो आज भी कुछ सूना-सूना सा लगता है। विवाह गीतों में गीतों का वैशिष्ट्य अपना अलग स्थान रखता है। लड़की के विवाह में सुहाग गीतों की प्रधानता रहती है तो लड़के के विवाह में घोड़ी गायन के साथ लोक भाषा के धार्मिक भजन भी गाए जाते हैं। बधावा लगभग दोनों प्रकार के विवाहों की शोभा होता है। इनमें सीठणी का अहम स्थान है। यह दोनों ओर गाई जाती है। लड़की के विवाह में यह सर्वोपरि रहती है। सीठणी एक प्रकार की गायन विधा में एक प्रकार की शालीन व्यंग्यात्मक गाली सी होती है जो हास्य उत्पन्न करती है। प्रायः बारात किसी ऐसे स्थान से आई होती है जिसका महिलाओं विशेषकर नई बहुओं और बेटियों को ठीक से पता नहीं होता। उन्हें उस गांव या क्षेत्र विशेष के लोगों के नाम भी नहीं आते। इसलिए पहले तो अनाम नाम या रिश्ते (जैसे दूल्हे का भाई, दूल्हे का पिता आदि के साथ परिधानों के रंग को इंगित कर भी) से उच्चारण होता है। और यदि किसी ने कुछ विशिष्ट नाम बता दिए तो फिर सोने पर सुहागा। यह गायन पहले भात पर होता है। बारातियों को जब भोजन कराया जाता है तो आंगन में पंगत में बैठे लोगों में से किसी का नाम लेकर गाया जाता है तो अन्य बाराती उसे इंगित कर हंसते हैं। स्वागत करते लोग भी आस-पास खड़े हंसते हैं। यह हंसना और सीठणी का स्वीकार मित्रता के सूत्रों को प्रगाढ़ता प्रदान करता है। पहले बारात प्रायः रात को ही आती थी। तब जहां उसे ठहराया जाता था वहां भोजनोपरांत महिलाएं और पुरुष अलग-अलग समय पर उनसे मिलने जाया करते थे। सीठणी में पहले महिलाएं बैठक गाती हैं। उसके बाद फिर कुछ और गीत गाए जाते हैं जो भोजन के समय से भिन्न होते हैं और कभी उनका पुनर्गायन भी होता है। विवाह के अवसर पर तब हंसी का ऐसा माहौल कि जो देखते-सुनते ही बनता है। गीतों-गीतों में मित्रता के ये सूत्र कई बार ऐसे बन जाते हैं कि बाद में न जाने कितने रिश्ते-नाते जुड़ जाते हैं। लोगों की पहचान का दायरा बढ़ने के चलते आज रिश्ते लगभग प्रायोजित होने लगे हैं। इससे यह परंपरा टूटी ही नहीं, बल्कि इससे मित्रता के नए सूत्रों के बंधन में भी रुकावट आई है। गांव के परिवेश में आज भी जैसे ही बारात भोजन करने आती है तो महिलाएं पहले स्वागत गीत गाती हैं। उपरांत पंगत के आंगन में बैठ जाने से और भात बांधा जाता है। इस बंधे भात को बारातियों में से कोई एक व्यक्ति खोल देता है। उसके बाद सीठणी आरंभ होती है-

स्वागत गीतः-

आओ जी जणेतियो आओ जीऽऽ

बइठी जाओ जी जणेतियों, बइठी जाओ जीऽऽ

फिर सामूहिक गान आरंभ होता हैः-

केथा ते ये जणेती आए, केथा ते आए साह जीऽ़

दूरा तो जणेती आए, तेथा ई आए साह जीऽऽ

(हे! बारातियों आओ जी। आओ। बैठो। फिर पूछा जाता है कि ये बाराती कहां से आए होंगे? ये तो सेठ लगते हैं। दूसरी कहती है कि ये बहुत दूर से आए हैं और भूखे हैं।)

इस बीच पतलें दे दी जाती हैं। लड़कियां भीतर से देखती रहती हैं और विषय बदल देती हैं-

भात बांधना आरंभ होता है :

प्हात दे बोटिया ऐड्डी देर ना लायाऽ ।। 2।।

ये साह दूरा ते आए जी

नईं सहंदे प्हूख जीऽ

खाणे ते पइले हाथ नी त्होए, ना त्होए पैर जीऽऽ (बारातियों में मुस्कुराहट फूटती है)

बइठे मुए प्हूखे (एक अन्य स्वर)

इन्ना री बाह्नी पातल सारी,

सारा बान्नेआ प्हात बेऽऽ

दाल़ बी बान्नी, सब्जी बी बान्नी,

बान्ने इन्ना रे टुंडू जीऽ (टुंडू शब्द पर बारातियों में एक हंसी छूटती है)

(एक और स्वर) साथे बान्नेआ मुंह बेऽऽ

(कि ये बाराती दूर से आए हैं और भूख सहन नहीं कर सकते। तब तो खाने से पहले इनकी पत्तल बांधी जानी चाहिए, फिर इनका भात भी। उपरांत इनको दिए जाने वाले पकवान भी बांधे जाते हैं। साथ ही इनके हाथ और मुंह भी) इसके साथ पंगत में पहला पकवान आ जाता है। कुछ जो भात बांधना नहीं समझते, खाने लग जाते हैं। इस पर स्वागतियों में से मुस्कुराते कोई कह उठता है कि बंधा हुआ भात खा लिया। इतनी भी क्या भूख भाई! इस पर कोई वरिष्ठ या कोई नव युवा पंगत में से गाने लगता है।

प्हला किया कड़मेटियों जे तुस्से बान्नेआ म्हारा खाण

कि बान्नेआ खाण नी खांदा कोई

कि बइठे जानी हाथ संगोई

भले जीऽ(बारातियों में से कोई कहता है।)

कि लाड़े दे सिर सेहरा, कि देवी दे सिर छत

कि खाओ जणेतियो क्हियू शक्कर मण्डे प्हतः

कि बोलो रामो राम

रामो राम (सभी बोलते हैं और भात खाने लग जाते हैं)

(कि हे! समधिओं के पक्ष की युवतियों। आपने अच्छा किया कि हमारा भात बांध दिया। बंधा भात कोई नहीं खाता। इसलिए हमारे साथी हाथ पीछे किए बैठे हैं। इसलिए ये देखो हमारे साथ आए वर के सिर पर सेहरा है (सेहरा लगा दूल्हा शिव का प्रतीक है और घूंघट काढ़े दुल्हन पार्वती मानी जाती है) और देवी समान दुल्हन के सिर पर छत्र है। इसलिए सभी बारातियो, आपके सामने घी-शक्कर के साथ माण्डे (एक विशेष पकवान) परोसे हैं (भात के स्थान पर उपमा), इसे स्वीकार कर खाना खाओ।) इसे भात खोलना कहा जाता है। इसके बाद युवतियां फिर भात का दूसरा पकवान बांधती हैं। बारात में से वही व्यक्ति उस बंधन को खोल देता है। और कई बार एक लंबा सिलसिला बहस का चलता रहता है। इसे बानणू भी कहा जाता है। समाज में इसके जानकार कतिपय लोग ही हुआ करते थे। समाज से अब यह परंपरा विलुप्त हो गई है।

पहली सीठणी

सेर की छोलेआ री दाल़ मुइए,

रीजी कोरिया डिबडि़या।

जणेती बइठे खाण मुइए

बूबा चढ़ रइया क्हूगलि़या।

हाइड़े करदा सामा करदा चार मुइए

उतरेआ मेरिए पुरबलिए पणमेसरिएऽऽ

(सेर भर (एक किलो लगभग) चने की दाल निकाली है जो कोरे मिट्टी के बरतन में पका रखी है। बाराती खाना खाने आए हैं और इनकी बुआ (फूफी) इनकी पीठ पर सवार है। ये उससे विनम्रता से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे! मेरी पूर्वज, परमात्मा तू उतर और मुझे भात खाने दे।) यह बारातियों के लिए एक सामूहिक सीठणी है। उपरांत किसी व्यक्ति के नाम से भी इसे गाया जाता है।

सेर की छोलेआ री दाल़ मुइए

………….

ये मनशा (किसी बाराती का नाम) बइठा खाण मुइए

बूबा चढ़ रइया कुगलि़या

……….

उपरांत एक और सीठणी

ओऽ जी तुलसिया (किसी बाराती का नाम या उसके परिधान जैसे हरे स्वेटर वाले)

तू आपणिया बूबा क्ऊं नी लेआया

नांगी थी जी नांगी (दूसरी कहती है)

ओऽ मयां नालि़ए ल्यायूणी थी होर

त्हारे लइ जाणी थी

तेबे ट्हक्णी थी त्याम्बली़ रे पाच्चे

होर तेब्बे देणी थी म्हारे दादे खे

तेस ल्याणुए थे बांके टाल्ले (दूसरी कहती है)

न जी न (एक और स्वर)

चऽल मुआ च्हूठा

(किसी बाराती का नाम लेकर पुकारा जाता है और उससे पूछा जाता है कि वह अपनी बुआ को क्यों नहीं लाया। दूसरी कहती है कि वह तो नंगी थी। तब तीसरी या पहले वाली कहती है कि उसे लाना जरूरी था। उसे नालों के रास्ते लाता और पहाड़ों के रास्ते ले जाना था। उसे त्याम्बल़ (एक फल के बड़े पत्ते) के पत्तों से ढकना था। तब उसे किसी ने नहीं देखना था। फिर वह देनी थी हमारे दादा को। उसने लाने थे नए कपड़े। नहीं जी नहीं(एक नया स्वर)। तब कोई कह देगी कि तू तो झूठा है।) इस तरह जब तक बाराती भोजन करके उठ नहीं जाते, तब तक सीठणियों का दौर चलता रहता है। बाराती खाना भी खाते रहते हैं और ठहाके भी लगाते रहते हैं। इस प्रकार दूसरे दिन भी ऐसी ही कुछ और तरह के कथोपकथन के साथ सीठणी दी जाती है।

 


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