विवाद से परे है ईश्वर का अस्तित्व

By: Dec 14th, 2019 12:15 am

कालांतर में वह आकांक्षा उसे स्वयं नर के रूप में परिणत कर सकती है। इसी प्रकार कोई नर यदि नारी के चिंतन और सान्निध्य में अतिशय रुचि लेता है तो उसकी चेतना नारी वर्ग में परिणत होने लगेगी और वह उस प्रवृत्ति की तीव्रता के अनुरूप देर में या जल्दी लिंग-परिवर्तन कर लेगा। इसमें एकाध जन्म की देरी भी हो सकती है…

-गतांक से आगे….

लिंग परिवर्तन की घटनाओं में यही होता है। मनुष्य की आकांक्षाएं और अभिरुचियां जिधर गतिशील होती हैं, उसी तरह की लिंग मनोभूमि बनती चली जाती है। कोई नारी यदि नर के प्रति अत्यधिक आसक्त होती है, उसी के सान्निध्य एवं चिंतन में निरत रहती है तो उसका अंतःकरण उसी ढांचे में ढलता और तादात्म्य होता चला जाएगा। कालांतर में वह आकांक्षा उसे स्वयं नर के रूप में परिणत कर सकती है। इसी प्रकार कोई नर यदि नारी के चिंतन और सान्निध्य में अतिशय रुचि लेता है तो उसकी चेतना नारी वर्ग में परिणत होने लगेगी और वह उस प्रवृत्ति की तीव्रता के अनुरूप देर में या जल्दी लिंग-परिवर्तन कर लेगा। इसमें एकाध जन्म की देरी भी हो सकती है। लिंग-परिवर्तन की ऐसी घटनाओं में जिनमें नारी नर के रूप में या नर नारी के रूप में परिणत किए गए, उनमें शारीरिक या मानसिक कारण नहीं होते वरन् अंतःचेतना का गहन स्तर-कारण शरीर ही इस प्रकार की पृष्ठभूमि विनिर्मित करता है। नपुंसक वर्ग की भी ऐसी ही स्थिति है। इसे परिवर्तन का मध्य स्थल कह सकते हैं। समलिंगी आकर्षण से लेकर सहवास तक की अनेक घटनाएं देखने-सुनने में आती रहती हैं। इसमें भी वह अतृप्त आंतरिक आकांक्षा ही उभरती है। दो नारी यदि नर रूप में विकसित हो रही होंगी, तो उनमें नर के प्रति आकर्षण की विद्यमान मात्रा स्त्री रति की अपेक्षा पुरुष रति में रस एवं तृप्ति अनुभव करेगी और उसमें परस्पर घनिष्ठता बढ़ती जाएगी। इसी प्रकार दो नर यदि नारी रूप में विकसित हुए हैं, तो उनका पूर्वाभ्यास नारी के प्रति आकर्षण बनाए रहेगा और वे दो नारियां परस्पर मिलन का अधिक आनंद अनुभव करेंगी। यह विपर्यय दोनों कारणों से हो सकता है। विकसित होती हुई आकांक्षा भी अपनी अतृप्ति का समाधान कर सकती है। इसी प्रकार विकास आगे चल पड़ा है। शरीर बदल गए हैं, पर पूर्व मनोवृत्ति में भिन्न लिंग के संस्कार अभी भी प्रबल हैं, तो वे भी बार-बार वैसी ही उमंगें उठाकर, समलिंगी संपर्क में अधिक आकर्षण अनुभव कर सकते हैं। गत वर्ष यूरोप में ऐसे विवाहों को अदालत द्वारा भी मान्यता मिल चुकी है, जिनमें पति-पत्नी दोनों या तो नर ही थे या नारी ही नारी।                                                                             -क्रमशः

(यह अंश आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा रचित पुस्तक ‘विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व’ से लिए गए हैं।)

 


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