विवेक चूड़ामणि

By: Dec 21st, 2019 12:22 am

गतांक से आगे...

संलक्ष्य चिंमात्रतया सदात्मनोरखंडभावः परिचीयते बुधैः।

एवं महावाक्यशतेन कथ्यते ब्रह्मत्मनोरेक्यम खंडभावः।।

इस प्रकार लक्षण द्वारा जीवात्मा और परमात्मा के चेतनांश की एकता का निश्चय कर बुद्धिमान लोग उनके अखंड भाव का परिचय प्राप्त करते हैं। ऐसे ही सैकड़ों महावाक्यों से ब्रह्म और आत्मा की अखंड एकता का स्पष्ट वर्णन किया गया है। ब्रह्म भावना ब्रह्म शब्द का अर्थ है,सर्वव्यापक तत्त्व। इस प्रकार जो सर्वत्र व्याप्त है, वह ब्रह्म है। ब्रह्म की यह व्यापकता मिट्टी के बरतन में मिट्टी की तरह है। मिट्टी को एक ओर कर दो, तो पात्र का अस्तित्त्व ही नहीं रहता। इसी तरह ब्रह्म सर्वव्यापक ही नहीं सर्वरूप है और जब जगत ब्रह्मरूप ही है,तो यहां कुछ अन्य रह जाता है। यही अद्वैत और एकत्व की दृष्टि है। इसमें राग-द्वेष आदि विकारों के लिए कोई स्थान ही नहीं रहता।

अस्थूलमित्येतदसन्निरस्य सिद्धं स्वतो व्योमवदप्रतर्क्यम।

अतो मृषमात्रमिदं प्रतीतं जहीहि यत्स्वात्मतया गृहीतम।।

ब्रह्माहमित्येव विशुद्धबुद्ध्या विद्धि स्वामात्मानखंडबोधम।

‘अस्थूल मनंवहृस्वमदीर्घम’ इत्यादि श्रुति से असत और स्थूलता आदि का निरास(अस्वीकृत) करने से आकाश के समान व्यापक तर्क से परे वस्तु स्वयं ही सिद्ध हो जाती है। इसलिए हे प्रिय शिष्य! आत्मारूप से स्वीकारे जाने वाले ये देह आदि मिथ्या ही प्रतीत होते हैं, इनमें आत्मबुद्धि को छोड़ और ‘मैं ब्रह्म हूं’ इस शुद्ध बुद्धि से अखंड बोधरूप अपनी आत्मा को जान।

मृत्कार्य सकलं घटादि सततं मृंमात्रमेवाभित स्तद्वत्सज्जनिंत सदात्मकमिदं संमात्रमेवाखिलम।

यस्मान्नास्ति सतः परं किमपि तत्सत्यं स आत्मा स्वयं तस्मात्तत्वमसि प्रशांतममलं ब्रह्मद्वयं यत्परम।।

जिस प्रकार मृत्तिका के कार्य घट आदि हर तरह से मृत्तिका का ही कार्य हैं,उसी प्रकार सत से उत्पन्न हुआ सतस्वरूप संपूर्ण जगत सन्मात्र अर्थात सत्य ही है। क्योंकि सत से परे और कुछ भी नहीं है तथा वही सत्य स्वयं आत्मा भी है, इसलिए जो शांत, निर्मल और अद्वितीय परब्रह्म ही वही तुम हो।

निद्राकल्पितदेशकालविषयज्ञात्रादि सर्व यथा मिथ्या तद्वदिहापि जाग्रति जगत्स्वाज्ञानमार्यत्वतः।

यस्मादेवमिदं शरीरकरणप्राणाहमाद्यप्यसत तस्मात्तत्वमसि प्रशांतममलं ब्रह्माद्वयं यत्परम।।

जिस प्रकार स्वप्न में निद्रा दोष से कल्पित देश,काल,विषय और ज्ञाता आदि सभी मिथ्या होते हैं,उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी यह जगत,अपने अज्ञान का कार्य होने के कारण मिथ्या ही हैं। क्योंकि ये शरीर, इंद्रियां,प्राण और अहंकार आदि सभी असत्य हैं,मात्र इनकी प्रतीती हो

रही है, वस्तुतः यह है नहीं। अतः तुम

वही परब्रह्म हो,जो शांत, निर्मल और अद्वितीय है।

यत्र भ्रांत्या कल्पितं तद्विवेके तत्तंमात्रं नैव तस्माद्विभिन्नम।

स्वप्ने नष्टे स्वप्नविश्वं विचित्रं स्वस्मादभिन्नं किंतु दृष्टं प्रबोधे।।

जिसमें कोई वस्तु भ्रम से कल्पित होती है,विचार होने पर वह तद्रूप ही प्रतीत होती है,उससे पृथक नहीं। स्वप्न के नष्ट हो जाने पर जाग्रतवस्था में क्या विचित्र स्वप्न प्रपंच अपने से पृथक दिखाई देता है? बिलकुल नहीं।          – क्रमशः


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