समीक्षा से उज्ज्वल हुईं रचनाएं

By: Dec 22nd, 2019 12:17 am

वरिष्ठ रचनाकारों के रचनाकर्म की समीक्षाओं का प्रकाशन वास्तव में ही बड़ी पहल है। रचना पत्रिका के प्रबंधन, प्रकाशन के ऐसे प्रयासों की कंठमुक्त सराहना होनी ही चाहिए। रचना के प्रस्तुत अंक को जिस तरह संकलित किया गया और जैसे इसे ऊर्जावान बनाया गया, ऐसे प्रयास समय की मांग करते हैं। अब जब यह अंक हमारे हाथ में है, तो इसे हम संदर्भ खजाने के रूप में सहेज सकते हैं। समीक्षाओं की समीक्षा करते हुए मालूम पड़ता है कि रचना-कर्मियों ने बहुत ही खूबसूरती से कलम-धर्म का निर्वहन किया है। इसमें दो से ज्यादा लेखकों ने समीक्षा को ऐसे मांजा है कि साहित्यकारों का मूल कर्म भी चमक उठता है। इनमें बद्री सिंह भाटिया और अजय पाराशर ने समीक्षा के दौरान पूर्ण विवेक का सहारा लिया और दिल को शब्दों पर हावी नहीं होने दिया। गंगा राम राजी के उपन्यास ‘छली गई मेनका’ पर बद्री सिंह भाटिया ने खुलकर हाथ आजमाया और यह कृति और भी चमक उठी। ‘छली गई मेनका’ गजब की रचना है। इसी में भाटिया की यह टिप्पणी समीक्षकों के लिए की-नोट का भी काम कर सकती है। ‘उपन्यासकार ने ममता की शिक्षा तो बताई मगर उसके परिवार के बारे में कुछ नहीं बताया।’ इसी तरह की दूसरी टिप्पणी ‘लाल चंद ने मधुमती को दोनों आंखें दान दे दीं, यह मडिकल सिद्धांतों के खिलाफ है।’ इन कुछ अतिशयोक्तियों के साथ यह टिप्पणी भी गौरतलब है कि ‘लेखक का मूल उद्देश्य छल की परिणति दर्शाना रहा है, जिसमें वे सफल हुए हैं।’ यहां बद्री सिंह भाटिया कल्पना के संतुलन को आईना दिखाते प्रतीत होते हैं।

विख्यात नाटककार नागेंद्र प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक ‘भामती’ के तीन अंक हैं और तीनों ही हिस्सों को अजय पाराशर ने समीक्षा के जरिए ऐसा चुना और बुना है कि चमकते मोतियों की एक माला पाठक के समक्ष रख दी गई है। पुस्तक का कौन सा अंश कहां सजाना है, किस हिस्से को कैसे ठोककर टिकाना है, ऐसे कई पहलुओं को समीक्षक ने ध्यान केंद्रित करते हुए सामंजस्य बैठाया है। कहां संवाद चाहिए, कौन से पात्र को कहां जगह देनी है, ऐसे तमाम प्रयास अंततः किताब की हूबहू शक्ल पाठकों के सामने रख देते हैं। नाटक भामती की पूरी पटकथा ही चलचित्र की भांति आंखों से गुजर सके, समीक्षक के ऐसे प्रयास फलीभूत हुए और समीक्षा मुकम्मल। हालांकि पाराशर की सीख ध्यानाकर्षण जरूर करती है कि नाटक में संकलनत्रय नहीं है। पाराशर ने ही ‘पर्वतों के अंग-संग’ पुस्तक पर भी बेझिझक वांछनीय टिप्पणियां बतौर समीक्षक की हैं। धर्मपाल साहिल इस पुस्तक के लेखक हैं। इसमें कई गलत जानकारियां और बेमेल संदर्भ समीक्षक ने नोट किए हैं। एक और किताब ‘जो मैंने देखा’- लेखक चंद्रकांत की यह किताब है। समीक्षक अजय पाराशर यहां किताब के भीतर बात करते हैं। वे किताब के उस पार की बात करते हैं और किताब के दिशा संदर्भों के साथ भी बात करते हैं। इसमें समीक्षक को एक साथ कई अनुभव अंदर-बाहर हुए हों या होंगे, ऐसा प्रतीत होता है। लेखक और समीक्षक इसमें रूमानी विषय पर कोई संवाद कर रहे हों। ‘लुईत की धारा से’ नूतन पांडे इसकी लेखिका हैं। असम के जनजीवन पर आधारित कहानियां इसमें समाहित हैं। इसकी उल्लेखनीय समीक्षा डा. सुशील कुमार फुल्ल ने की है। देग के सभी चावल पक गए हैं या और ‘दम’ चाहिए। इसे जांचने के लिए एक ही दाना चखा जाता है। डा. फुल्ल शिक्षक हैं और समीक्षक भी उतने ही कुशल। ‘लुईत की धारा से’ पुस्तक की समीक्षा को उन्होंने ऐसे सांचे-खांचे में ढाला है कि आप असम में भी जी लेंगे और साहित्य आस्वादन भी भरपूर कर सकेंगे। ‘रचना’ के पृष्ठ नंबर 43 पर शोध प्रबंध पर वरिष्ठ साहित्यकार सुदर्शन वशिष्ठ की समीक्षा रपट का सार भाव गांभीर्य का एहसास करवाता है। डा. आशु फुल्ल के शोध प्रबंध हिमाचल के हिंदी उपन्यास में नारी परिवेश का चित्रण समाहित है। रचना के इसी अंक में बाजार में हालिया आई पुस्तकों की जानकारियां भी संक्षिप्त टीका के साथ प्रकाशित हैं। 75 पन्नों में समाहित ‘रचना’ का जुलाई-दिसंबर का अंक भरपूर सांस लेने की इजाजत देता है। साहित्य जगत में आक्सीजन भरते ऐसे प्रयास अनुकरणीय हैं। रचना का प्रकाशक व प्रबंधन मंडल साधुवाद का पात्र है। पुस्तक को अवश्य सहेजा जाना चाहिए।

-ओंकार सिंह


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