समीक्षा ही नहीं, संपूर्ण साहित्य संकट के कगार पर है

By: Dec 22nd, 2019 12:18 am

डा. सुशील कुमार फुल्ल

मो. -9418080088

  समीक्षा के निहितार्थ

समीक्षा क्या है, इसके निहितार्थ क्या हैं और एक निष्पक्ष समीक्षा के क्या गुण हैं, इन्हीं विषयों को लेकर कई पुस्तकों की समीक्षा के साथ तैयार किया गया प्रतिबिंब का यह अंक पेश है :

सृजनकर्ता एवं आलोचक के बीच सदा से ही एक द्वंद्व की स्थिति रही है, हालांकि दोनों का कर्म एकदम स्पष्ट है। लेखक का काम है अपने सामर्थ्य के अनुसार रचना करना और समीक्षक का कार्य है दोनों आंखें खुली रख कर कृति का मृल्यांकन करना। समीक्षा कदापि स्तुति गान नहीं हो सकती। यदि वह इस श्रेणी में आती है तो उसे या तो प्रायोजित माना जाएगा जैसे आज की पेड न्यूज होती है या फिर उसे पक्षपातपूर्ण ठकुरसुहाती कहना बेहतर होगा। समीक्षा वास्तव में लेखक को गतिशील रखने के लिए बैल की पूंछ को परैण लगाने के समान होती है।तटस्थ समीक्षा न हो तो सामान्य रचनात्मकता का ह्रास होता है। बाजारवाद के युग में समीक्षा ही नहीं, साहित्य की समग्र विधाएं संकट के कगार पर हैं। सब कुछ आदान-प्रदान के आधार पर चल निकला है। लेखक और समीक्षक में जो भिड़ंत वर्चस्व की है, वह कभी सच में दोनों में सौहार्दपूण संबंधों की नहीं रह सकती क्योंकि आज कृति महत्त्वपूर्ण नहीं बल्कि कौन लेखक है और समीक्षा किस पत्र-पत्रिका के लिए लिखी जा रही है, यह महत्त्वपूर्ण है। क्या कोई प्रकाशक अपने द्वारा प्रकाशित पुस्तक की समीक्षा अपनी ही किसी प्रचार-प्रसार से संबंधित पत्रिका में प्रकाशित कर रहा है? उल्लेखनीय है कि आजकल प्रकाशकों ने अपनी पत्रिकाएं अपने विज्ञापन के लिए निकालनी शुरू कर दी हैं। मेरा मानना है कि ऐसी समीक्षाएं एकदम फुसफुसी और निरर्थक होती हैं। ये केवल पाठक को गुमराह करने के लिए काम करती हैं। वास्तव में लेखक और समीक्षक में मधुर संबंध हो सकते हैं, यदि लेखक समीक्षक को कुनीन पिलाने वाला डाक्टर समझे तो, अन्यथा वे एक-दूसरे का सहज सामना कर ही नहीं सकते। सही समीक्षा लिखने वाले को पत्र-पत्रिकाओं वाले भी आज के जमाने में ज्यादा घास नहीं डालते।बहुत से लेखक अपनी पुस्तकों के प्रारंभ में बड़ी-बड़ी भूमिकाएं लिखवाते हैं नामी-गिरामी विद्वानों से, इससे भी कोई लाभ नहीं होता। यह भी पाठकों के मन में क्षणिक चकाचौंध पैदा करने के लिए ही होता है। लेखक व्यर्थ की महानता के सपने लेकर मन ही मन गदगद हो लेता है। साहित्य में प्रचलित वादों की दृष्टि से देखा जाए, तो आज का युग ही जुगाड़वाद का युग है। समीक्षा में तो यह है ही। निजी लेखक जो आजकल बड़े-बड़े आयोजन करवाते हैं, जिनमें वे अपनी नव प्रकाशित पुस्तकों का लोकार्पण करवाते हैं और मित्रों से अपने रचना कर्म पर कसीदे पढ़वाते हैं, ये सब क्या है? जो साहित्य नहीं भी है, उसे अद्भुत का विशेषण सहज ही लगा दिया जाता है। पेड न्यूज की तरह पेड पब्लिकेशन ने धनवानों की राह आसान कर दी है और साहित्य का क, ख, ग भी न जानने वाले मंचों पर बैठ कर अपने महान रचनाकर्म पर वाहवाही लूट रहे हैं। हो गया साहित्य का कायाकल्प। गत पचास वर्षों में मैंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए लगभग दो हजार से अधिक पुस्तकों की समीक्षा की है और बहुत से दोस्त खोए भी हैं, लेकिन बहुत से अपरिचितों को पाया भी है। कोई भी कृति यदि समीक्षक को गुदगुदाती है या उसे पढ़ने के लिए मोहपाश में बांध लेती है, तो समीक्षक की प्रतिक्रिया विवेकाधारित होगी और वही सही समीक्षा होगी।कोई कमी अगर दिखाई दे रही होगी, उसका भी स्पष्ट उल्लेख करना समीक्षक का दायित्व बनता है। चर्चित और अचर्चित क्या? कोई जमाना था जब पुस्तकें अपने आप चर्चित होती थीं, यानि पाठकों की संख्या के आधार पर, अब तो पुस्तकें चर्चित की और करवाई जाती हैं और जितनी धन वर्षा, उतनी अधिक प्रशंसा। बेहतर यही होगा कि इस गणना को हम अभी स्थगित रखें और व्यर्थ में किसी के प्रचारक न बनें। अब तो लोकार्पण, विमोचन सब कुछ छद्माभास लगता है। कई पत्र-पत्रिकाएं बेस्ट सैलर की सूची प्रकाशित करते हैं, परंतु यह सब भी प्रायोजित लगता है। जान-पहचान, संपर्क, चाहत, आदान-प्रदान आदि सब कुछ चलता है। समीक्षा की दुर्गति के लिए लेखक, संपादक, संरक्षक, इर्द-गिर्द आदि अनेक लोग तो उत्तरदायी हैं ही, परंतु फ्लैप मैटर को ही पढ़ कर समीक्षा तैयार कर देने वाले तथाकथित समीक्षक-आलोचक भी जिम्मेदार हैं। समीक्षक को सर्जन का रोल अदा करना होता है ताकि मोती चुन कर वह पाठकों को बता सके और अवांछित को नकार सके।मुंह देख कर या कुर्सी की ऊंचाई देख कर की गई समीक्षाएं फुसफुसी और बेमानी रहेंगी। उन की क्षणिक चकाचौंध से लेखक अपने को तो भरमा सकता है, परंतु पाठकों को उल्लू नहीं बना सकता। समीक्षा लेखक को उसकी कृति का सही आईना दिखलाने का औजार है, सही जगह परैण लगा कर उसे व्यंग्य के धरातल पर घायल करने वाली हो, तभी उसका उद्देश्य पूरा होता है। समीक्षा यदि ऐसी नहीं होगी तो वह भूस भरी खाल से अधिक कुछ नहीं होगी।


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