सराजी कहावतों से जनमानस मेंहास्य-व्यंग्य की निष्पत्ति

By: Dec 15th, 2019 12:16 am

डा. धर्मपाल 

मो.-9817080040

यह निर्विवादित सत्य है कि कहावतों में नीति, उपदेश, सीख, संदेश, भविष्य कथन के साथ-साथ वक्रोक्ति भी होती है। उनमें तीखा एवं चुटीला व्यंग्य मनोविनोद पाया जाता है। साधारणतया हास्य व्यंग्यात्मक कहावतों का व्यंग्य न तो मात्र शत्रुतावश, न ईर्ष्यावश और न ही खिल्ली उड़ाने के उद्देश्य से किया जाता है, अपितु हास्य के झीने आवरण के पीछे निर्भीकता के साथ वाग्वैदग्ध्य द्वारा ये कहावतें असत्य, मिथ्याचरण एवं पाखंड आदि को अपने प्रहारों से अनावृत्त करने का सफल प्रयास करती हैं। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि कहावतें रीति-नीति, व्यक्ति का आचरण, प्रवृत्ति, गुण-दोष, असत्य कथन, आडंबर आदि पर हास्य व्यंग्यात्मक प्रहार होती हैं और इनके कथन का लक्ष्य व्यक्ति के आचरण को हंसते-हंसाते हुए परिष्कृत करना होता है। इसी प्रकार के कुछ उदाहरण सराजी कहावतों में प्रस्तुत हैं जो वहां के जनमानस में बहुतायत कहने-सुनने को मिलते हैं। सराजी कहावतों में मनोरंजनात्मक प्रवृत्ति नाम के आधार पर जनमानस में बहुत प्रचलित है जो किसी व्यक्ति के नाम के विपरीत गुण अथवा सामाजिक एवं आर्थिक सामर्थ्य पर व्यंग्य द्वारा परिहास करती प्रतीत होती है, यथा-

नाऊँ खजानॉ गाँठी न होऊ आन्नॉ

अथवा

नाऊँ मॉणी खाउणे वे नाई नाजॉ कॅ कणी

भाव यह है कि व्यक्ति के पास धेला भी नहीं और पुत्र का नाम रखा है खजाना राम। इसी तरह घर में कोई खाने के लिए दाने-दाने को मोहताज है, परंतु उसका नाम है मणी, जिसके होने से किसी प्रकार के अन्न-धन का अभाव नहीं रहता। किसी भी तरह के समाज में यद्यपि आर्थिक स्थिति का नाम से कोई संबंध नहीं परंतु फिर भी किसी निर्धन व्यक्ति का अपनी सामर्थ्य की तुलना में बड़ा नाम रखना लोगों को जनमानस में अच्छा नहीं लगता। ऐसा होने पर जनमानस उसका उपहास ही उड़ाता है। ऐसी ही उपहासात्मक परिस्थिति निम्न सराजी कहावत हंसते हुए लक्षित करती है, यथा-

आपू बे नईं खॉणू कठे, बॉडि़यॉ

नाँऊ जगरनॉथ।

पॉढ़नॉ नांई ऑऊ ऑखर नाऊ विद्याधर

अर्थात मनुष्य के पास खाने के लिए घर में बडि़यां तक नहीं हैं, नाम रखा है – जगन्नाथ जो सबको देने वाला, भरण पोषणकर्ता है। इसी प्रकार व्यक्ति को पढ़ना तो एक अक्षर तक नहीं आता, नाम रखा है- विद्याधर। ऐसे में जनमानस हंसेगा नहीं तो क्या करेगा जब यह कहावत सुनेगा? सराजी कहावतों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे व्यक्ति की निर्धनता में भी उसे हास-परिहास के मौके मजे से दे ही देती हैं। सब जानते हैं कि समाज में व्यक्ति की आर्थिक स्थिति ठीक होनी चाहिए। समझदारी, जागरूकता ही पर्याप्त नहीं होती, गांठ में पैसा भी जरूरी है। इसी बात को सराजी जनमानस कहावत के माध्यम से यों व्यक्त करता है-

है तॉम्बड़ी, गॉलॉ गल्यॉऊ रॉम्बड़ी

कहने का अभिप्राय यह कि व्यक्ति सिर से गंजा है मतलब, धनहीन है परंतु बातें दूसरों की भलाई की करता है, महत्त्व व काम की बातें करता है। इससे बड़ी हंसी की बात और क्या हो सकती है? स्वार्थ से जीव का जन्म-जन्म से नाता रहा है। स्वार्थ में अंधे को अपने से आगे कुछ दिखता ही नहीं। चाहे वह अपनी आंखों पर कितना ही मोटा चश्मा क्यों न लगा ले। सराजी जनमानस की कहावतों में व्यक्ति की ऐसी स्वार्थी प्रवृत्ति पर व्यंग्य अभिव्यक्ति जमकर हुई है-

पहलॉ पेट पूजा, बादॉ कॅ कॉम दूजॉ

उपरोक्त कहावत में सर्वप्रथम बिना कुछ किए, अपनी भूख शांत करना, तत्पश्चात कुछ और सोचना अथवा किसी दूसरे के विषय में सोचना व करने का भाव प्रकट किया गया है। सराजी कहावतों में कभी-कभी जानवरों, पशु-पक्षियों को माध्यम बनाकर भी जनमानस का मनोरंजन किया जाता रहा है, यथा-

ब्राघॉ रीछॉ किऊ पोलड़े

अर्थात बाघ व रीछ के लिए जूते किस काम के। उन्हें जूते पहनाना व्यर्थ है, क्योंकि उनके पैर पंजे होते हैं तथा उनके लिए उनका कोई महत्त्व नहीं। ऐसा ही एक और भाव निम्न कहावत भी जमकर हंसाते हुए व्यंजित करती है-

बान्दरो वे किऊ बालियॉ

अर्थात बंदर को सजाने की कोशिश करना बेकार है, क्योंकि उसमें न तो सुंदरता है और न ही वह बाली का मूल्य व महत्त्व समझता है। वह पल भर में ही उन्हें तोड़कर फेंक देगा। सराजी जनमानस में यही कहावत ना समझ, छोटे बच्चों तथा लापरवाह व्यक्ति के लिए अक्सर प्रयोग में लाई जाती है। सराजी जनमानस के परिवार विषयक कहावतों में दामाद-साले के बारे में हास्य व्यंग्यात्मक टिप्पणियां भी सराजी लोक साहित्य की कहावतों के सहारे सराजी लोक साहित्य को समृद्ध करती हैं। इन कहावतों में दूर के जवांई को फूल समान प्रिय माना गया है, जबकि घर-जवांई व्यंग्यात्मक शब्दों में गधे के समान माना गया है जो एक सामाजिक सत्य भी है।


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