हार गए तो हार गए
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक
मैंने कहा-‘अमां यार परेशान क्यों होते हो, हार गए तो हार गए।’ वे बोले-‘यह बात नहीं है।’ मैंने पूछा-‘तो क्या बात है ?’ बोले-‘वे जीत गए न।’ ‘तो क्या हुआ चुनाव में एक जीतता है दूसरा हारता है।’ ‘आप नहीं समझेंगे भाई जी यह रहस्य ?’ ‘इसमें रहस्य की बात क्या है ? आप परेशान मत होइए, अभी चंद दिनों में सारी पोलें खुल जाएंगी और असलियत सामने आ जाएगी।’ मेरे दिलासे से वे ज्यादा अधीर होकर बोले-‘भाई जी आप ठहरे भावुक आदमी, यथार्थ के कठोर धरातल की सख्ती का आपको पता नहीं है। वे जीते हैं और मेरे सीने के नाग किस तरह फुंफकार रहे हैं आपको अंदाजा नहीं है।’ मैंने कहा-‘आप राजनेता है, सारे सदमे बर्दाश्त करते रहे हो, अब वब भी करो, हार गए तो हार गए।’ ‘आपको लगता है कि वे सरकार बना लेंगे।’ ‘मैं भी तो आपसे यही कह रहा था कि वे सरकार नहीं बना पाएंगे, मेंढक भी तुलते देखें है आपने कभी ?’ मैंने कहा-‘आप सही फरमाते हैं, लेकिन मेरी तो एक बात समझ नहीं आई कि जब से आप हारे हैं और वे जीते हैं, पूरे शहर में दंगे हो रहे हैं, यह कौन सी पालिटिक्स है?’ वे घुटे हुए थे, बोले-‘जब तक नए चुनाव नहीं हो जाते तब तक शहर में यों ही आगजनी और लूटपाट होती रहेगी।’ ‘क्या मतलब ?’ ‘मतलब साफ है, कुछ लोगों में वैचारिक मतभेद फैलाकर और कुछ में दहशत पैदा करने से हमारा वोट बैंक मजबूत होता है।’ ‘लेकिन हम तो धर्मनिरपेक्ष जो ठहरे। इस बात को तो मानते ही नहीं, सब समान है।’ मैंने तर्क दिया तो उन्होंने बत्तीसी निकाल कर कहा-‘यह सब बातें आपके लिए हैं, हमारे लिए सत्ता सुख से बड़ी और कोई बात नहीं है।’ ‘यह तो सोसायटी के लिए बड़ी घातक स्थिति है।’ मैंने कहा। वे बोले-‘सोसायटी का भला करने से कुछ नहीं मिलता भाई जी। बुरा करो तो वह सुरक्षा के लिए आसरा-तलाशती है, यह आसरा और कहीं नहीं, राजनेताओं की विशाल तोंदों के नीचे ही मिलता है।’ ‘लेकिन अब माफ कर दीजिए इन निरपराध भोले निरीह लोगों को, वे नहीं जानते, वे क्या कर रहे हैं। आप हार गए तो हार गए, कल जीत भी जाएंगे।’ मैंने कहा। नेताजी ने टोपी को दोनों हाथों से ठीक किया और बोले-‘भाई जी जब तक चुनाव दुबारा नहीं हों और मैं जीत नहीं जाऊं, तब तक मेरे पंजों की खुजली यों ही नहीं मिट जाने वाली।’
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