हैदराबाद का दौरा शहनाज को उदास कर गया

By: Dec 14th, 2019 12:15 am

 सौंदर्य के क्षेत्र में शहनाज हुसैन एक बड़ी शख्सियत हैं। सौंदर्य के भीतर उनके जीवन संघर्ष की एक लंबी गाथा है। हर किसी के लिए प्रेरणा का काम करने वाला उनका जीवन-वृत्त वास्तव में खुद को संवारने की यात्रा सरीखा भी है। शहनाज हुसैन की बेटी नीलोफर करीमबॉय ने अपनी मां को समर्पित करते हुए जो किताब ‘शहनाज हुसैन ः एक खूबसूरत जिंदगी’ में लिखा है, उसे हम यहां शृंखलाबद्ध कर रहे हैं। पेश है सैंतीसवीं किस्त…

जीवन एक वसंत/शहनाज हुसैन

किस्त-37

-गतांक से आगे…

पारिवारिक डॉक्टर को बुलाया गया, कुछ फर्स्ट-एड देने के बाद डॉक्टर पूरे शरीर में जहर को फैलने से बचाने के लिए इंजेक्शन तैयार करने लगे। जब वह सीरिंज में दवाई भर रहे थे तो अमीना उसे देखकर सिर हिलाने लगीं। पसोपेश में डाक्टर ने पूछा, ‘मैडम कोई परेशानी है क्या?’ उनकी आवाज ठहरकर आ रही थी, लेकिन थी एकदम साफ – ‘रमजान का महीना है और मैंने चालीस सालों में कभी रोजा नहीं तोड़ा है। मैं इंजेक्शन लगवाकर, अब इस उम्र में अपने मजहब से दगा नहीं कर सकती।’ डाक्टर सकते में था, उनके बेटे, बेटियां और पास खड़े बच्चे सब मुंह बाए उन्हें देख रहे थे। ‘बेगम साहिबा, मैं भी मुसलमान हूं। यकीन मानिए, यह इंजेक्शन आपकी जान बचाने के लिए है, आपको इसे न नहीं कहना चाहिए।’ अमीना अपनी बात पर कायम थीं। घरवालों के इसरार करने पर भी उन्होंने न में सिर हिला दिया। आखिरकार उन्होंने उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए, दुआओं के साथ उनकी बात रख ली। फिर, एक सुरक्षित घेरा बनाते हुए, सब उनके पास बैठकर दुआएं पढ़ने लगे। आंसू भरी आंखों से शहनाज हर पल अपनी नानी के चेहरे को पीला पड़ते हुए देख रही थीं। घड़ी की टिकटिक के साथ, सांस दर सांस अमीना की तकलीफ बढ़ रही थी। घड़ी की सुइयों से भी ज्यादा तेजी से उनके शरीर में जहर फैल रहा था और सूरज जब संतरी रंग के गोले में तब्दील हो ही रहा था, तो दुआओं की बुदबुदाहट उन्मतत्ता में और तेज होने लगी, मानो दुआएं साकार होने को ही हों। लेकिन जब एक नीला सा गुबार उनके सफेद बालों से होते हुए चेहरे पर बढ़ने लगा, तो कमजोर आवाज में ‘अल्लाह’ कहते हुए अमीना म्लान पड़ गईं। हैदराबाद का दौरा शहनाज और सईदा को बेइंतेहा उदास कर गया। खुशी-खुशी इकट्ठा हुआ परिवार अब गमजदा था। वापसी में जहाज के अंदर शहनाज अपनी नानी को याद करते हुए बिल्कुल खामोश थीं, उनकी आंखों के सामने उनके आखिरी सफर की एक-एक तस्वीर आ रही थी, वह याद जो सालों बाद भी उनकी तासरी में जिंदा रही। वह बाहर बादलों को देख रही थीं, जिनके मायने अब उनके लिए बदल चुके थे। परिवार अभी-अभी एक बड़े दुख से गुजरा था, फिर भी शोक में था, लेकिन सईदा, हर बेटी की मां की तरह, खुशियों को वापस सहेजने और बेटी के निकाह में कोई कोर-कसर न रहने देने के लिए दिलोजान से जुट गईं। यह दुख को कम करने और शोक के दिनों को भुलाकर निकाह में जोशो-खरोश लाने के लिए बेहद जरूरी भी था। शहनाज पांच नवंबर को 16 की हो जाने वाली थीं और वह उनकी बेहद खास सालगिरह थी। उनकी मंगनी हो गई थी और निकाह होने वाला था।                                         -क्रमशः


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