अध्यात्म और साधना

By: Jan 11th, 2020 12:20 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

इस निमंत्रण को स्वामी जी ने स्वीकार कर लिया और विभिन्न शहरों में व्याख्यान देने लगे। वे जहां कहीं भी जाते,श्रोता उन्हें सुनने के लिए वहीं पहुंच जाते थे। खास-खास शहरों से स्वामी विवेकानंद के पास वहां आने के लिए निमंत्रण आने लगे थे। ईसाई लोगों ने भारत का जो कुत्सित घिनौना रूप, भारत स्थित ईसाई धर्म प्रचारकों ने वहां प्रचारित किया था,उनका खुद ही खंडन होने लगा। वहां के बुद्धिमान लोगों ने यह मान लिया कि भारत अब भी धर्मगुरु के आसन का वास्तविक अधिकारी है और अभी हमें भारत से बहुत कुछ सीखना है। स्वामी जी हिंदू धर्म की विशेषताओं को तो दर्शाते थे,लेकिन अन्य धर्म के खंडन में रुचि नहीं लेते थे। उनका बड़ा स्पष्ट दृष्टिकोण था, जैसा कि धर्मसभा के अंतिम दिन उन्होंने प्रतिपादित किया था। सभी धर्म ईश्वर प्राप्ति के विभिन्न मार्गों के समान हैं,वे सभाओं में प्रवचन देते समय ईसाई लोगों से पूछते, तुम्हारा ईसाई धर्म कहां है? स्वार्थ की इस लड़ाई,रोजाना की इस विनाशीलता के बीच करुणा और दया के अवतार  ईसा का स्थान कहां है? क्या यह सब ईसा की शिक्षा है। सारा संसार अपना परिवार मानने वाले इस संन्यासी के मित्रों और श्रद्धालुओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ने लगी। अनेक उदार चेतना पादरी उनकी धर्मतत्व की व्याख्या से प्रभावित होकर अपने उपासनागृहों में व्याख्यान देने के लिए स्वामी जी को आमंत्रित करने लगे। अपने व्याख्यान के बाद प्रायः सवाल करने वालों का जवाब स्वामी जी देते थे। उनके उत्तर देने की विशेषता का बखान करते हुए एक पत्र में लिखा है जिसने अपनी युक्ति द्वारा स्वामी जी को परास्त करने की कोशिश की, उसकी कोशिश नाकाम हो गई। उनका उत्तर तीर की तरह निकल पड़ता था। सीधा लक्ष्य पर आघात करता था। प्रश्नकर्ता भारतीय मस्तिष्क की तीक्ष्णता से आहत हो जाता था। पूरे अमरीका में स्वामी जी की बढ़ती हुई ख्याति से डरकर कुछ ईसाई धर्म के प्रचारक शहरों में घूमकर उनके खिलाफ प्रचार करने लगे। वे स्वामी जी पर अनेक प्रकार से इलजाम लगाने लगे। वे धन का लालच देकर कुछ सुंदर तरुणियों को स्वामी जी के पास भेजने लगे, जिससे स्वामी जी का चरित्र भ्रष्ट हो जाए और वह उनके खिलाफ प्रचार कर सकें। जब उनको इसमें कामयाबी हासिल न हो सकी तो फिर स्वामी जी में डर बिठाकर प्रचार कार्य रोकने की कोशिश करने लगे। वे बेचारे ये नहीं जानते थे कि अभय तो भारतीय अध्यात्म साधना की पहली शर्त है। स्वामी जी अपनी प्रशंसा को सुनकर न तो घमंड में डूबे थे और न ही अपनी निंदा को सुनकर विचलित हुए थे। वे पूरे जी जान से अपने प्रचार कार्य में लगे रहे।  स्वामी जी के मित्र व स्नेही कदम-कदम पर उन्हें सावधान करते रहते थे।     


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