अनंत चेतना का केंद्र
श्रीराम शर्मा
मनुष्य के अस्तित्व पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए, तो उसकी एकमात्र विशेषता उसका मनोबल ही दृष्टिगोचर होती है। शरीर की दृष्टि से वह अन्य प्राणियों की तुलना में बहुत गया गुजरा है। मनोबल की विशेषता के कारण ही वह सृष्टि का मुकुटमणि प्राणी बना हुआ है। मन वस्तुतः एक बहुत बड़ी शक्ति है। अनंत चेतना के केंद्र परमात्मा का प्रकाश इस जड़ प्रकृति में जो पड़ता है, तो उसका प्रतिबिंब मन के रूप में ही सामने आता है। जड़ पदार्थ कितने ही उत्कृष्ट क्यों न हों चेतना के बिना वे निरर्थक हैं। इस पृथ्वी के गर्भ में रत्नों की खानें, स्वर्ण भंडार और न जाने क्या-क्या बहुमूल्य संपदाएं भरी पड़ी हैं पर वे तब तक प्रकाश में नहीं आती, जब तक कोई चेतना संपन्न मनुष्य उनसे संपर्क स्थापित नहीं करता है। स्वर्ण और रत्न का मूल्य चेतन प्राणी की चेतना के कारण ही है अन्यथा वे मिट्टी कंकड़ के समान ही पड़े रहते हैं। इस देह को ही लीजिए। कितनी बहुमूल्य प्रिय एवं उपयोगी लगती है पर यदि चेतना नष्ट हो जाए,मूर्छा, उन्माद या मृत्यु की स्थिति आ जाए,तो यह देह किसी काम की नहीं रह जाती। मानव जीवन में जो कुछ श्रेष्ठता एवं महत्ता है वह केवल उसकी मानसिक स्थिति मनोभूमि के कारण ही है। मनुष्य-मनुष्य के बीच का अंतर आलसी और उत्साही, कायर और वीर, दीन और समृद्ध, दुर्गुणी और सद्गुणी, पापी और पुण्यात्मा, अशिक्षित और विद्वान, तुच्छ और महान, तिरस्कृत और प्रतिष्ठित का जो आकाश-पाताल जैसा अंतर मनुष्यों के बीच में दिखाई पड़ता है उसका प्रधान कारण उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति ही है। परिस्थितियां भी एक सीमा तक इन भिन्नताओं में सहायक होती हैं पर उनका प्रभाव पांच प्रतिशत ही होता है। पंचानवें प्रतिशत कारण मानसिक स्थिति ही है। बुरी से बुरी परिस्थितियों में पड़ा हुआ मनुष्य भी अपनी कुशलता और मानसिक विशेषताओं के द्वारा उन बाधाओं को पार करता हुआ, देर सवेर में अच्छी स्थिति प्राप्त कर लेगा। अपने सद्गुणों, सद्विचारों एवं प्रयत्नों द्वारा कोई भी मनुष्य बुरी से बुरी परिस्थिति को पार करके ऊंचा उठ सकता है, मानवोचित सम्मान और सुविधाएं प्राप्त कर सकता है। पर जिसकी मनोभूमि निम्न श्रेणी की है, जो दुर्बुद्धि से, दुर्गुणों से, दुष्प्रवृत्तियों से ग्रसित है उसके पास यदि कुबेर जैसी संपदा और इंद्र जैसी सुविधा हो, तो भी वह अधिक दिन ठहर न सकेगी, कुछ ही दिन में नष्ट हो जाएगी। परमात्मा ने मनुष्य और मनुष्य के बीच में बहुत थोड़ा अंतर रखा है। सभी के शरीर लगभग एक से हैं। आवश्यकताएं, विशेषताएं, परिस्थितियां भी सभी की लगभग एक सी हैं। शरीर और मस्तिष्क की बनावट और कार्य प्रणाली में भी कोई बहुत अंतर नहीं है। यूं थोड़ा बहुत अंतर रहता है, वह इतना ही है जितना एक पेड़ के पत्तों में या एक जाति के पक्षियों में रहता है। यह इतना अधिक नहीं है कि उसके कारण किसी को विवशता अनुभव करनी पड़े। कुछ थोड़े से रुग्ण अपंग या ऐसे ही असमर्थों को छोड़कर साधारणतया सभी को परमात्मा ने लगभग एक सा शरीर और मन दिया हुआ होता है और यदि मनुष्य उनका सदुपयोग करे तो ऊंची से ऊंची स्थिति प्राप्त कर सकता है और यदि दुरुपयोग करने पर उतर आए, तो पतन, अंधकार एवं नरक जैसी अज्ञान दरिद्र एवं असमर्थता जैसी बुरी परिस्थिति में ग्रसित हो सकता है।
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