अफजल ‘बलि का बकरा’

By: Jan 23rd, 2020 12:05 am

प्रख्यात फिल्म निर्देशक महेश भट्ट की पत्नी और सुपरस्टार आलिया भट्ट की मां सोनी राजदान ने घोषित आतंकी अफजल गुरु को ‘बलि का बकरा’ क्यों करार दिया? उन्होंने कहा है कि अफजल को फांसी देना न्याय का उपहास है। यदि आज जांच के बाद वह निर्दोष साबित होता है, तो उस मरे इंसान को कौन वापस ला सकता है? सोनी राजदान का यह भी आरोप है कि अफजल को जेल में यातनाएं दी गइर्ं। ये सवाल और आरोप सामान्य नहीं हैं। सोनी इतनी मासूम और बेखबर भी नहीं हैं कि 13 दिसंबर, 2001 को भारतीय संसद पर आतंकी हमले और उसकी साजिश को न जानती हों! सोनी राजदान खुद कश्मीरी मूल की हैं और कश्मीरी पंडित होने के नाते 30 साल पहले के नरसंहार, घाटी से बेदखली और अपने ही देश में शरणार्थी के तौर पर रहने की पीड़ा और व्यथा को न जानती हों! बीती 19 जनवरी को उस काली, हत्यारी और मनहूस रात को तीन दशक गुजरे हैं। कश्मीर आतंकवाद से छलनी रहा है। बेशक आज आतंकियों की ताकत और तादाद कम हुई है, लेकिन आतंकवाद आज भी मौजूद है। लिहाजा सोनी आतंकवाद की चुभन को जरूर महसूस करती रही होंगी! हैरानी भरा सवाल है कि सोनी राजदान और अफजल गुरु के बीच के समीकरण क्या हैं? अफजल तो जैश-ए-मुहम्मद का घोषित आतंकी था। सोनी ने अचानक ऐसा मुद्दा क्यों उठाया है, जो भारत के संविधान का हनन करता है, हमारी न्यायिक व्यवस्था की अवमानना करता है, संसद और उस आतंकी हमले में ‘शहीद’ हुए सुरक्षा जवानों का अपमान करता है और बेहद गंभीर है कि आतंकियों के प्रति हमदर्दी बयां करता है। ये सवाल और बयान ‘देशद्रोह’ की श्रेणी के हैं। इन्हें ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ बिल्कुल नहीं माना जा सकता। सोनी राजदान के खिलाफ न्यायिक अवमानना का केस दर्ज किया जाना चाहिए। अफजल को निचली अदालत ने फांसी की सजा सुनाई। उच्च न्यायालय ने उस पर मुहर लगाई और अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने सजा को बरकरार रखा। न्याय की प्रक्रिया यहीं नहीं रुकी, बल्कि तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के सामने दया याचिका पेश की गई। उन्होंने दया की गुहार को खारिज कर दिया। तमाम कानूनी विकल्पों के समाप्त होने के बाद 9 फरवरी, 2013 को अफजल को फांसी दे दी गई। न्याय प्रक्रिया 11 लंबे सालों से भी ज्यादा चली। उसके बावजूद सोनी राजदान ने जो कुछ कहा है, उसके जरिए देश की संपूर्ण संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती दी है। बल्कि उसे ‘खोखला’ साबित करने की कोशिश की है। सोनी इस संदर्भ में ‘अन्याय’ की स्पष्ट व्याख्या करें। दरअसल 9 फरवरी को अफजल गुरु की बरसी से पहले देश में ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और ‘अफजल प्रेमी ताकतें’ सिर उठाने लगती हैं और कुछ आवाजें गूंजती हैं-‘अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं।’ सवाल है कि ये कातिल कौन हैं? दरअसल आतंकियों की पैरोकारी बालीवुड के एक तबके में फैशन भी बन गया है। उनसे इतर एक जमात ऐसी भी है, जो अफजल को फांसी देना ‘लोकतंत्र पर धब्बा’ मानती रही है। अफजल का लोकतंत्र से क्या सरोकार…! बहस और चर्चा यहीं तक सीमित नहीं है। यह भी कहा जाता रहा है चूंकि अफजल मुसलमान था, लिहाजा उसे आनन-फानन में फांसी पर चढ़ा दिया गया। स्वतंत्र भारत में कुल 1014 अपराधियों को अभी तक फांसी दी गई है। उनमें 72 अपराधी ही मुसलमान थे। तो इस मुद्दे को ‘हिंदू-मुसलमान’ क्यों किया जा रहा है? देश में हालात सामान्य नहीं हैं। नागरिकता के विषय पर देश में गुस्सा, उत्तेजना और अस्तित्व की लड़ाई का बोध है। ऐसे में सोनी राजदान सरीखे बयान ‘आग में घी’ का काम ही कर सकते हैं। कश्मीर में सरहद पर और घाटी के भीतर हमारी सेना, सुरक्षा बलों के जवान और पुलिस वाले आतंकवाद के खिलाफ  जो निरंतर लड़ाई जारी रखे हैं, इन बयानों और सवालों से वह भी कमजोर पड़ती है। कमोबेश किसी भी कोण से इसे ‘देशहित’ में नहीं माना जा सकता।


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