आत्म पुराण

By: Jan 11th, 2020 12:15 am

 से आगे…

जड़ रूप तेज और जल ऐसा विचार नहीं कर सकते थे, इसलिए यह मानना पड़ता है कि परमात्म देव की चेतन शक्ति ही उनमें प्रवेश करके सांसारिक पदार्थों का निर्माण करती है।

शंका- हे भगवन! वह परमात्मदेव उन तेज,जल आदि भूतों से पहले ही तादात्म्य हो चुका था, तो श्रुति ने फिर उसका जीव रूप से प्रविष्ट होना क्यों बतलाया?

समाधान- हे श्वेतकेतु! यद्यपि यह परमात्मा देव कारण रूप से उन तेज,जल आदि भूतों में पहले ही प्रविष्ट हो चुका था,पर वह उनमें जीव रूप से प्रविष्ट नहीं हुआ था,क्योंकि जीव का लक्षण तो प्राणों को धारण करना है। पर आरंभ में प्राण धारण करना आदि बातें उन तेज,जल आदि में

नहीं थी।

हे श्वेतकेतु जो चेतना देह, प्राण, अपान,व्यान,उदान,समान इन पांच प्राणों को धारण करता है, बारंबार जन्म-मरण के चक्र में पड़कर संसार में आता है,शुभ-अशुभ कर्मों को पाता है,वही जीव कहलाता है। हे श्वेतकेतु इन समस्त देहधारी जीवों में अपना-अपना अंगुष्ठ प्रमाण हृदय कमल में ज्ञान शक्ति वाला अंतःकरण रहता है। इस अंतःकरण के साथ जो चेतन तादात्म्य विदित होता है,उसी का नाम जीव है।

शंका-हे भगवन! जो अंतःकरण को ही जीव का उपाधिरूप मान लिया जाएगा, तो सुषुप्ति अवस्था में अंतःकरण का नाश हो जाता है तब जीव का भी नाश हो जाना चाहिए।

समाधान- हे श्वेतकेतु! सुषुप्ति अवस्था में भी अंतःकरण का सर्वथा नाश नहीं होता। वरन उस समय वह सूक्ष्म वासना रूप में बना रहता है। क्योंकि सुषुप्ति के पूर्व जिस प्रकार का अंतःकरण प्रतीत होता है वैसा ही सुषुप्ति अवस्था समाप्त हो जाने पर भी जान पड़ता है।

शंका-हे भगवन! यदि अंतःकरण और उसकी वासनाओं को जीवात्मा का उपाधि रूप माना जाएगा, तो अंतः करण तथा वासनाएं तो अनेक हैं, इससे जीवों को भी अनेक मानना होगा?

समाधान- हे श्वेतकेतु! अंतःकरण की उत्पत्ति तथा नाश होने से जीवात्मा की उत्पत्ति और विनाश नहीं होता। इससे वह जीवात्मा सर्वदा एक रूप ही रहता है। यद्यपि भिन्न-भिन्न अंतःकरणों में स्थित होने से वह जीवात्मा भी भिन्न-भिन्न रूप वाला प्रतीत होता है,तो भी वह अनेक नहीं हो सकता। अंतःकरण की वासनाओं का आधार भूत अज्ञान एक ही है और आत्मज्ञान के बिना उस अज्ञान का नाश नहीं होता। उस अज्ञान रूप उपाधि को दृष्टिगोचर रखकर ही शास्त्रवेत्ता विद्वान उस जीवात्मा को एक कहते हैं तथा नित्य भी कहते हैं और हे श्वेतकेतु! जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं का कारणभूत जो कर्म वासना है उन सब वासनाओं का आश्रय अज्ञान

ही है। उस अज्ञान रूप आश्रय का नाश करके जब उन सब वासनाओं का भी नाश हो जाता है, तभी यह जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए इस भूमि में जितने वृक्ष हैं,उनमें से जिस वृक्ष का बीज और मूल नष्ट हो जाता है,वही वृक्ष नष्ट हो जाता है, अन्य सब वृक्ष नष्ट नहीं होते। उसी प्रकार इस माया में जितने जीव जकड़े हैं,उनमें से जिनके अंतःकरण की वासनाओं का नाश हो जाता है।


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